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वह गणिका गायत्री : सौन्दर्य, काम और कला
विश्रान्तिर्यस्य सम्भोगे, सा कला न कला मता। लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला ।।
अपने महल के आकाशी वातायन पर बैठा मगध का राजपुत्र नन्दिषेण गहरे सोच में डूबा है।
· · · मेघकुमार और वारिषेण जो महावीर के समवसरण में गये, तो फिर लौटे ही नहीं। वे अनगार उदासी संन्यासी हो गये । वे जगत और जीवन के सुख और सौन्दर्यों को वमन की तरह त्याग कर चले गये । इस घटना ने नन्दिषेण को जैसे छेद दिया है । उसका सारा भीतर मानो उलट कर वाहर आ गया है । और प्रश्न है कि अपने इस आर्द्र तरल भीतर को वह इस बाहर के जगत में कहाँ रक्खे ? मेघ और वारि के निष्क्रमण ने जैसे सारे संसार पर पाण्डुर सन्ध्या की उदास चादर डाल दी है।
नन्दिषेण के मन में अविराम मन्थन चल रहा है । · · क्या यह जीवन और जगत जीने योग्य नहीं, भोगने योग्य नहीं ? क्या यह संसार केवल मायामरीचिका है ? क्या इसके होने और चलने का कोई अर्थ ही नहीं ? क्या यह असत् है ? असत् है, तो इसका अस्तित्व क्यों कर है ? क्या असत् में से आविर्भाव और सृष्टि हो सकती है ? महावीर ने तो विश्व को एक वास्तविकता कहा है। यहाँ के पदार्थ और प्राणि मात्र को सत् कहा है। और जो सत् है, वह निरर्थक और त्याज्य कैसे हो सकता है ?
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