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अगले ही क्षण दोनों सुन्दर सुकुमार श्रमण, राजगृही के प्रशस्त राजमार्ग पर लौटते दिखायी पड़े । देखते-देखते उनकी पीठे जन के महावन में विलीन हो गई।
युगल मुनि वारिषेण और सोमदत्त जब समवसरण में लौट कर, श्री भगवान के चरणों में नमित हुए, तो देवों ने पुष्प-वृष्टि करते हुए जयनिनाद किया:
पूर्णकाम योगी वारिषेण जयवन्त हों
आप्तकाम मोगी सोमदत्त जयवन्त हों भगवद्पाद गौतम का गंभीर स्वर हठात् सुनाई पड़ा :
'स्थितिकरण के मन्दराचल हैं, मुनीश्वर वारिषेण । चंचल में अचल और अचल में चंचल का वे मूर्तिमान स्वरूप हैं। विलक्षण है उनका व्यक्तित्व । भोग और त्याग के भेद से परे वे सहजानन्द योगी हैं। अनन्त कला-पुरुष भगवान की एक और कला उनके द्वारा विश्व में उद्भासित हुई। परम रसेश्वर भगवान महावीर जयवन्त हों ..
जयवन्त हों जयवन्त हों
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