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को जानो । तुम मेरे अभिन्न केलि-सखा रहे हो। काम के कादम्ब अन्धकार में तुम भोगो या मैं भोगं, क्या फर्क पड़ता है। विषय मात्र एक है, विषयी मात्र एक है, सोमदत्त !'
और वारिषेण ने देखा कि सोमदत्त धरती में गड़ा जा रहा है। सिमट कर गठरी हुआ जा रहा है।
'संकोच में पड़े हो, सोम ? ज्ञान में पर पुरुष और पर नारी का भेद नहीं। भेद है केवल ब्रह्मभोग और अब्रह्मभोग का । निर्भय हो कर चुनाव करो। और अपना पाथेय, जहाँ भी दीखे, उसे निर्विकल्प अंगीकार करो। पाप विकल्प में है, निश्चय में नहीं। पाप का भय जब तक है, पाप से निस्तार कहाँ ? ऐसा भोगी जो भी भोगेगा, वैध या अवैध, वह पाप ही होगा। पर जो निर्विकल्प है, वह कुछ भी भोगे, भोग कर भी भोगातीत होता जायेगा। भोगता है वह केवल अपने को ।... ___ 'सोमदत्त, अपनी ही आग में चलने से डरोगे ? अपनी ही वासना से भागोगे ? उसे पाप कह कर गुणानुगुणित करोगे? · · · तो जानो, कि मैं झोंक दूंगा अपने को तुम्हारी आग में !'
'ओह वारिषेण, मेरी ऐसी कड़ी परीक्षा न लो । मैं · · · मैं . . . '
'श्यामा के पास गये बिना, तुम्हें चैन नहीं ? यह सौन्दर्य तुम्हें तुच्छ दीखता है ?'
'वारिषेण, मुझे पाताल में न ढकेलो । सौन्दर्य और यौवन के सीमान्त सम्मुख हैं । श्यामा अब और कहीं नहीं । यहाँ नहीं, तो अन्यत्र उसका अस्तित्व ही नहीं।'
'तो उसे उपलब्ध होओ। उसे भोगो, जानो और तर जाओ। वारिषेण का अन्तःपुर आज की रात तुम्हारी प्रतीक्षा में खुला है।'
... · वह मेरे भीतर खुल गया, वारिषेण ! और ये सारी रमणियाँ, मेरे रोम-रोम में एकाग्र, समग्र रमण कर रही हैं। इन युवरानियों के सौन्दर्य का चिर कृतज्ञ हूँ। मातेश्वरी चेलना देवी ने मुझे अपना लिया । वारिषेण, तुम . . . तुम · · · तुम कौन हो ? कोई नहीं, केवल महावीर । वे भगवान सम्मुख हैं, तुम्हारे चेहरे में, तुम्हारी आँखों में। इन सारी सुन्दरियों की आँखों में। अब कहीं जाना नहीं है । सब अभी, यहाँ मुझ में जैसे परिपूर्ण छलक रहा है।'
महादेवी और युवरानियाँ, सब जैसे उसी एकमेव महासमुद्र की तरंगें हो रहीं। वे नाम रूप से परे अपने निजत्व में लीन हो गयी हैं।
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