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________________ १८५ 'तो सुनो कहानी, वारिषेण। सुभद्रा ग्वालिन का पुत्र सुभद्र था। वह गाय चराकर अपनी आजीविका सम्पन्न करता था। एक दिन उसके साथी ग्वालों ने उसे खीर खिलायी। सुभद्र को वह खीर बहुत अच्छी लगी। उसने घर आकर माँ से वैसी हो खीर खाने का आग्रह किया। गरीब माँ ने पुत्र की हठ को पूरा करने के लिए, अड़ोस-पड़ोस से याचना करके खीर बनायी। रसना-लोलुप सुभद्र ने इतनी अधिक खीर खायी कि उसे वमन हो गया । तब भी वह खीर खाता गया, और वमन करता गया । जब माँ के पास उसे खिलाने को और खीर न बची, तो उसने झल्ला कर वमन की गयी खीर को ही उसके सामने रख दिया। रसना-लम्पट सुभद्र उसे भी खा गया । मुनीश्वर वारिषेण, क्या उसने उचित किया ?' वारिषेण चेलना के गूढ़ अभिप्राय को समझ गया । वह हँस पड़ा, और कौतुकी मुद्रा में बोला: 'सुनो माँ, एक कहानी मैं भी कहता हूँ। एकदा उज्जयिनी का राजा था वसुपाल, उसकी रानी थी वसुमती। दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था । एक दिन रानी को सर्प ने डंस लिया। मंत्रवादी बुलाये गये । एक मंत्रवादी ने उस सर्प को बुला लिया, जिसने रानी को डंसा था । परन्तु वह सर्प इतना क्रोधी था, कि उसने रानी को निर्विष न किया । उसने स्वयं अग्नि में जल मरना ही उचित समझा । सर्प का हठ अपनी जगह है, पर कोई तो हो, जो उसे संचेतन करने को, अग्नि में अपना हाथ झोंक दे? क्या यह उचित नहीं ?' ___रानी चकरा गई। इस गढ़ार्थ को वह समझ न पायी। ठीक तभी वारिषेण की सारी युवरानियाँ, सम्पूर्ण शृंगार किये, प्रस्तुत हुईं । पति के आगमन और दर्शन का सौभाग्य पा कर, उनका सौन्दर्य और यौवन पूर्णिमा के समुद्र की तरह कल्लोलित और हिल्लोलित दिखायी पड़ा । रानियाँ अपने योगी प्रियतम का मार्दव और तेज देख आत्मविभोर, ठगी-सी रह गईं। वन्दना करना तक भूल गयीं, बस मर रहीं, मिट रहीं। उत्सर्ग हो रहीं। तभी हठात् वारिषेण ने अपने मित्र सोमदत्त को सम्बोधन किया : 'देखते हो मित्र, इन रमणियों का रूप और यौवन ? क्या तुम्हारी श्यामा इनसे भी अधिक सुन्दर है ? सौंदर्य ही भोगना है, तो श्रेष्ठ भोगो । भोग भी अन्ततः योग की तल्लीनता को स्पर्श कर जाता है। वहाँ नाम, रूप, देह का अन्तर व्यर्थ हो जाता है। भोग, भोग है, इस देह का हो या उस देह का हो । क्या अन्तर पड़ता है ? भोगो वारिषेण के अन्तःपुर को, और भोग के चरम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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