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________________ १८४ लेकिन उसका तेजांशी पुत्र वारिषेण, और योग-भ्रष्ट हो जाये ? उसकी कोख क्या उसे ही दगा दे गई ? उसका दूध मिट्टी में मिल गया? वारिषेण तो जन्मजात योगी है । उसके अभिनिष्क्रमण के समय उसका जो तेजोमान रूप देखा था, क्या वह मात्र भ्रान्ति थी ? रानी के असमंजस को वारिषेण कुतूहल की मौन मुस्कान के साथ देखता रह गया । फिर उसने पहेली को एक और तरह दी । वह बोला : 'जन्मजात योगिनी चेलना देवी, श्रमण की निर्बन्ध अतिथि-चर्या को नहीं समझ पायीं ?' रानी आसमान से नीचे आ गिरी । उसे स्पष्ट लगा कि यह परीक्षा की घड़ी है। वह आपे में आई, सम्हली, और स्वागत को प्रस्तुत हुई । बोली : 'अतिथि वातरशनाओं को प्रणाम करती हूँ। उनका स्वागत है।' और झुककर महारानी ने मुनियों का वन्दन किया । फिर तत्काल दो आसन सम्मुख बिछा दिये । एक डाभ का आसन, दूसरा रत्न-जटित सुवर्ण-तार का आसन। 'बिराजें, भगवन् !' वारिषेण ने सोमदत्त को आसन ग्रहण करने का इंगित किया। सोम कुछ झिझका, चुनाव करता-सा दीखा। फिर काँपता-सा रत्नासन पर बैठ गया। वारिषेण ने अपने सर्वथा योग्य डाभ के आसन को अंगीकार किया । हठात वारिषेण बोला : 'महादेवी से एक अनुरोध है। विगत के युवराज वारिषेण की सब युवरानियाँ सोलहों सिंगार कर यहाँ प्रस्तुत हों!' रानी को किसी दुर्घटना की आशंका हुई। पर वारिषेण का स्वर सत्ताशील था । उसमें ऐसी आज्ञा थी, जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता था । महादेवी ने युवरानियों के अन्तःपुर में सन्देश भेज दिया। फिर वे घुटनों के बल फर्श पर उपविष्ट हुईं । क्षण भर सोच में पड़ी इस रहस्यमयी घटना की थाह लेती रहीं । फिर बोलीं: 'वारिषेण, एक कहानी सुनोगे ?' 'माँ के पास कहानी सुनने तो आया ही हूँ। ताकि अपने बालपन को फिर एक बार जी जाऊँ ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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