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उदास आतुर स्वर में सोमदत्त बोला : _ 'मझे तुरन्त वहाँ ले चलो, वारिषेण । केलि और संगीत के बिना मझे चैन नहीं। मेरी श्यामा, जाने कहाँ · · · होगी ? वह वियोगिनी मेरे विछोह में छीज रही होगी, रो रही होगी, वारिकुमार · · !" ___ और सोमदत्त का कण्ठावरोध हो गया। वह छाती में सिसकी दबाता-सा वारिषेण के पीछे चल पड़ा ।
सोमदत्त समवसरण की शोभा को देख अवाक रह गया।देवांगनाओं, अप्सराओं इन्द्राणियों के रूप-लावण्य समुद्रों की तरह उमड़ कर अर्हत् महावीर के श्री चरणों में विसर्जित हो रहे हैं । देव-गन्धर्वो और किन्नरों की संगीत-सुरावलियों पर उर्वशियों के उत्तोलित यौवन नाना नृत्य-भंगों में निछावर हो रहे हैं ।
श्रीभगवान की वन्दना कर दोनों मुनि श्रमणों के सभा-कोष्ठ में उपविष्ट हो गये। सोमदत्त को दिखाई पड़ा : श्रीभगवान की भ्रूलताओं पर रति और कामदेव प्रत्यक्ष शाश्वत क्रीड़ा-केलि में लीन हैं। उसकी वासना और सम्वेदना उभर कर तीव्रतम हो आई । उसे अपनी प्राणेश्वरी पत्नी श्यामा की याद ने अत्यन्त विव्हल और बेचैन कर दिया।
ठीक तभी, सोमदत्त की डूबन और तल्लीनता को देख, पास बैठे एक श्रमण । कहा :
'धन्य हो श्रमण सोमदत्त, प्रभु के श्रीमुख को निहारते-निहारते ही तुम समाधिसुख में लीन हो गये । तुम निश्चय ही शीघ्र शुक्लध्यान के उच्च शिखर पर आरोहण करोगे।'
तभी एक और पास बैठे विद्वेषी श्रमण ने कटु व्यंग के स्वर में कहा :
'सोम और शुक्लध्यान ! हद हो गई। इसे क्या मैं जानता नहीं। मेरा पूराना मित्र है । अपनी काली-कलूटी स्त्री के रूप-यौवन में ही यह रात-दिन लिप्त रहता था। मुनि हो कर यहाँ शायद भगवान से अपनी प्रिया के लिये अमृत माँगने आया है । · · · तब से बराबर सुन रहा हूँ, यह बिसूर रहा है।'
विद्विष्ट श्रमण के इस व्यंग ने सोम के विदग्ध हृदय पर जैसे लवण छिड़क दिया । ठीक तभी उसे अपने पिछले प्रवास में सुना किन्नर-किन्नरी का गीत याद आ गया। उसमें उसकी अपनी श्यामा की वियोग-व्यथा का बड़ा करुण और सांगोपांग चित्रण था । किन्नर-युगल गा रहा था :
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