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सोमदत्त रो आया । कठिनाई से बोला : 'जनम-जनम के सखा हो मेरे । मुझे छोड़ जाओगे ? पत्थर कहीं के !'
'चल सकते हो मेरे साथ, सोम, लेकिन मेरी ही तरह अनगार हो कर । सागार और अनगार का साथ कैसे निभे ? जाओ, सुखपूर्वक अपने अन्तःपुर में क्रीड़ा-केलि करो । फिर मिलेंगे।'
कह कर वारिषेण चल पड़े। सोम फूट पड़ा । उसने वारिषेण के पैर पकड़ लिये । बोला : 'नहीं, मुझे छोड़ कर तुम नहीं जा सकते, वारिकुमार !' _____ और अगले ही क्षण उसने अपने सारे वस्त्राभरण उतार कर तम्बू पर फेंक दिये । सेवकों को आदेश दिया : 'डेरा उठा कर महालय लौट जाओ। अब हम लौट नहीं सकेंगे।'
वारिषेण का कमण्डलु सोमदत्त ने उठा लिया । वारि मनि ने मयूर-पींछी से उसके सर्वांग को स्पर्श-स्नान करा दिया । वह पावन हो गया, और वारिषेण का अनुगमन करने गगा। ___ मार्ग में नदी-तट पर एक सुरम्य वेतस-कुंज और केतकीवन दिखाई पड़ा। सोमदत्त भावित हो आया :
'वारिषेण, याद करो, यह वही लताकुंज है, जहाँ हम अपनी वधुओं और वल्लभाओं के साथ क्रीड़ा किया करते थे । ठीक वैसी ही कोयल सुदूर में बोल रही है। . . और मेरो श्यामा ने एक दिन यहाँ अपनी वीणा पर बसन्त राग गाया था । ...'
और सोमदत्त का गला रुंध गया । वारिषेण कुछ न बोले, मित्र की कातरता में चुपचाप सहभागी होते रहे । उसके सम्वेदन को स्वयम् में सहते रहे । तभी सोमदत्त ने किंचित् स्वस्थ हो कर पूछा : .
क्या महावीर के संघ में क्रीड़ा-केलि का आनन्द है, वारिषेण? क्या वहाँ भी संगीत की सुरावलियाँ हैं ?'
'सुनो सोम, यहाँ क्रीड़ा-केलि और संगीत में रमने के लिये, मनुष्य को काल से छीना-झपटी करनी पड़ती है। यह रमण प्रतिपल जरा, रोग, मरण
और पराधीनता से बाधित है । और देखते-देखते यह सुख काल में विलीन हो जाता है । · · लेकिन महावीर के परिसर में निरन्तर निर्बाध क्रीड़ा-केलि चल रही है। वहाँ के अनन्त आलाप संगीत में जगत के सारे संगीत निर्वाण पा जाते हैं । स्वर्ग और पृथ्वी के सारे कामभोग, रूप-सौन्दर्य और कला-विलास अर्हन्त के समवसरण में सार्थक होने को समर्पित हैं। चाहो तो चल कर स्वयं ही देखो, सोमदत्त ! हाथ कंगन को आरसी क्या ?'
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