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• . सम्राट और सम्राज्ञी आनन्द के आँसुओं में विश्रब्ध, अवाक् हो रहे। वारिषेण कुमार अचल पीठ दिये दूर-दूर, दूर-दूर चला जा रहा था । राजा और रानी ने भूकम्पी आघात के साथ अनुभव किया : पृथ्वी उन्हें धारण करने से मुकर गयी है । नहीं, इस वसुन्धरा पर उनका कोई अधिकार नहीं।
वारिषेण को नतमाथ सामने खड़े देख, अकाल-पुरुप महावीर की दिव्य-ध्वनि उच्चरित हुई :
_ 'स्मशान को पार कर आये, आयुष्यमान् । मृत्यु को पहन कर आये हो । दिगम्बर से परे तुम चिदम्बर हो आये । सहन सिद्ध को साधना क्या ? संघ के अनुशासन से मुक्त, सर्वत्र स्वतंत्र विचरण करो । स्व-सत्ताधीश अनुशासन से ऊपर
है।
'संसार में जाओ वारिषेण । इस भवारण्य में अनेक सन्दर आत्माएँ, अपनी मुक्ति की खोज में स्वच्छन्द भटक रही हैं । उन्हें इंगित मात्र से उनके स्व-छन्द में स्थिर कर दो । उपदेश द्वारा नहीं, अपने आचार के सौन्दर्य द्वारा । विराग उन पर लादो नहीं, उनके अनुराग को ही आत्मराग में मोड़ दो। जाओ वारिषेण, जयवन्त होओ। महावीर तुम्हारे साथ है ।'
श्रीभगवान की सौन्दर्य-विभा से दूर विचरने का आदेश सुन वारिषेण क्षण भर कातर हो आया। उसकी आँखों में आँसू आ गये । कि तत्काल उसे प्रभु का कठोर वज्राघात अनुभव हआ। वह हठात् निर्विकल्प हो, मुंह फेर कर, समवसरण के मण्डलों को पार कर गया । देव, दनुज, मनुज स्तम्भित देखते रह गये। _ निर्लक्ष्य ओर अकारण मनि वारिषेण लोक में भ्रमण कर रहे हैं । और अनजाने ही अज्ञात सुन्दर आत्माओं को खोजते विचर रहे हैं । ____ एक दिन वे पोलासपुर की राह पर विहार कर रहे थे । तभी अचानक राजमंत्री का पुत्र और उनका अभिन्न मित्र सोमदत सामने आ खड़ा हुआ । वह यात्रा पर था, और पास ही एक आम्र-कानन में तंबू तान कर ठहरा हुआ था। सुकुमार मित्र वारिषेण को इस निग्रंथ मुद्रा में कठोर चर्या करते देख, वह मोह से भर आया । उसने मुनि को साश्रुनयन नमन किया। उनका पड़गाहन-आवाहन कर, उन्हें अपने अपने डेरे पर ले गया, और उन्हें आहारदान किया ।
___ अनन्तर वारिषेण को एक शिलासन पर आसीन किया। मुनि कुछ बोले नहीं, चुपचाप वे सोमदत्त की ओर मुस्कुराते रहे । उन्होंने भव-समुद्र की एक मोहक मछली को अपने जाल में फंसा लिया था । वे जाने को उद्यत हुए ।
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