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मृत्यु की इस अबुझ भयावनी खोह के छोर तक जाना होगा । जानना होगा कि उसके पार क्या है ?
एक रात उसने अपने प्राण के तल में एक विस्फोटक धक्का अनुभव किया। वह संचेतन और सन्नद्ध हो उठ खड़ा हुआ । उसमें स्फुरित हुआ : 'मृत्यु-चिन्तन करना ही मृत्यु का ग्रास होना है । उसे मृत्यु का आमना-सामना करना होगा। उसकी चुनौती को झेलना होगा ।' - और ब्राह्म-मुहर्त में सहसा ही अपनी सुख-शैया त्याग कर, अपनी युवरानी के बाहुपाश को औचक ही सिरा कर वह स्मशान में चला गया । एक चिता के अवशेष में अपने वस्त्र झोंक दिये । स्मशान की राख को अपने केश, मुख और शरीर पर पोत लिया ।और एक बुझी हुई चिता के भस्मावशेष में बैठ कर, अपनी महावेदना में सर के बल सीधे डूबता चला गया । उसका होश चला गया । तमिस्रा के एक अपार्थिव अधोलोक में, वह पटल के बाद पटल भेदता, बेतहाशा नीचे. और नीचे, और नीचे उतरता चला गया । वह साक्षात् मृत्यु की गोद में समाधिस्थ हो गया ।
· · · अगले दिन स्मशान यात्रियों ने एक अघोरी को स्मशानसिद्धि में तपोमग्न देखा । उनके कौतूहल और भयादर का पार न रहा।
उस दिन रात के प्रथम प्रहर में, राजगृही का प्रसिद्ध चोर विद्युत, अपनी गणिका-प्रिया मगध-सुन्दरी से उसके भूगर्भ-गृह में मिलने गया । गणिका ने आज शर्त बदी, कि सम्राज्ञी चेलना का अकूत रत्नहार चुरा कर लाओ, तभी मुझे छू सकते हो, वर्ना नहीं । चोर के सामने असाध्य की चुनौती थी । पर उसकी विकल वासना ने उसे अपराजेय शक्ति और निश्चय से कटिबद्ध कर दिया ।
चोर मानो अनंग कामदेव की तरह महारानी चेलना के शयनकक्ष में प्रवेश कर गया ! सोई रानी के कण्ठ में से बेमालूम हार निकाल कर रफू-चक्कर हो गया। लेकिन कोट्टपाल ने उसे महल के छज्जे-झरोखे फाँद कर भागते देख लिया । उसने बेदम विद्युत का पीछा किया। विद्यत पकड़े जाने के भय से थर्रा उठा। वह स्मशान को ओर दौड़ा । वहाँ उसने एक नंग-धडंग अवधूत को ध्यानस्थ देखा । विद्युत ने हार चुपचाप वारिषेण के पैरों के पास गिरा दिया, और नदी पार की झाड़ियों में गायब हो गया ।
कोट्टपाल अपने सिपाहियों के साथ चोर को टोहता स्मशान में आ लगा, कि अचानक उसने ध्यानस्थ वारिषेण के पद्मासन तले रत्नों की एक राशि
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