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जगमगाती देखी। उठा कर पाया कि, अरे यही तो महादेवी का अनमोल रत्नहार है । और यह चोर साधु का ढोंग रच कर, यहाँ ध्यानलीन हो गया है। कोटपाल बिजली की तरह काड़का : 'सिपाहियो, इस धूर्त कपटी साधु को गिरफ्तार कर लो ।' सिपाहियों ने पलक मारते में वारिषेण के हाथ-पैरों में हथकड़ी-बेड़ी डाल दी । और उसे ढकेलते हुए ले जाकर साम्राजी कारागार में बन्द कर दिया।
वारिषेण को लगा कि मृत्यु के राज्य की कोई भीषण ड्योढ़ी पार हो रही है। मगध का साम्राज्य वही तो है। जहाँ चोरों के श्रीपूज्य स्वयम्, साहुकार और लोकपाल राजा बने बैठे हैं । स्वतंत्र पदार्थ और सत्ता पर जब अधिकार की मुहर मार दी जाती है, तो वहीं से मृत्यु का तमस्-राज्य आरम्भ हो जाता है ।
प्रातःकाल की राजसभा में, महादेवी के दिव्य हार के तस्कर को सम्राट श्रेणिक के समक्ष न्याय-निर्णय के लिये उपस्थित किया गया ।
वारिषेण का तेज छुपा न रह सका। सम्राट ने विपल मात्र में पहचान लिया । सामने स्वयम् उनका प्राणाधिक प्रिय बेटा, अपनी माँ के हार के चोर के रूप में नग्न खड़ा है । सम्पत्ति मात्र की राख जिसने तन पर लपेट ली है, ऐसा यह निर्मोह पुरुष सम्पत्ति का चोर कैसे हो सकता है ? सम्राट की तहें कांप उठीं, उन्हें ठण्डे पसीने आ गये। वे आश्चर्य में दिग्मूढ़ थे। · · वारिकुमार को माँ का हार चुराने की क्या ज़रूरत थी ? वह चाहता तो सीधे माँ से माँग लेता, या उनके गले से उतार खद पहन लेता।· · · लेकिन न्याय के आसन पर पिता के विकल्प को कहाँ अवकाश।
सम्राट ने तन कर अपनी ममता को झटक दिया । चोर से जवाब तलब किया। चोर मूढ़, मौन, अविचल रहा। उसने न्यायावतार राजा के राज्य और न्याय दोनों की अवहेलना कर दी। उसने मानो इस न्याय को स्वीकारा ही नहीं। अन्याय पर टिके साम्राज्य का स्वामी औरों का न्यायाधीश कैसे हो सकता है ?
सम्राट-पिता ने वज्र का हृदय करके, न्यायानुसार सम्राज्ञी के हार के चोर को गंभीर स्वर में प्राणदण्ड सुना दिया । और क्षण मात्र में उठ कर वे लड़खड़ातेसे राजसभा के नेपथ्य में गायब हो गये ।
· · · वारिषेण वधस्थल की चट्टान पर यंत्रवत् आसीन हो गया । चाण्डाल वधिकों ने ज्यों ही उसके वध के लिये तलवारें तानी, तो वे तनी की तनी रह गई।
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