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वह आया, और सारे महलों, उद्यानों, अन्तःपुरों में अकारण ही फेरी देता रहा। वह सब-कुछ को केवल देखता रहा, जानता रहा । हर वस्तु और व्यक्ति के छोरों तक अबाध यात्रा करता रहा । हर पदार्थ और प्राणि के असली चेहरे के सौन्दर्य को उसने प्रथम बार देखा । . . • और उस परिप्रेक्ष्य में यह भी देखा, कि कैसे उसका विरूपन और विकृतन हो रहा है । शुद्ध से व्यभिचरण तक की सारी प्रक्रिया में से वह बेहिचक गुज़रा ।।
अपने अन्तःपुरों से भी उसने अब पलायन न किया । उनमें गया, रम्माण हुआ । अपनी रानियों को उसने पहली बार, मुक्त अकुण्ठित हृदय से प्यार किया। निग्रंथ स्पर्श से उनके तन-मन की पर्त-पर्त को दुलरा-सहला दिया । उन चिर दिन की अवहेलिताओं ने एक अजीब और अपूर्व मुक्ति तथा तृप्ति का अनुभव किया । उन्होंने नहीं चाहा कि वे अपने पति और प्रीतम को अपनी बाँहों और चोलियों में बाँध कर रख लें । उन्हें लगा कि उनकी अपनी वस्तु है, कहीं जाने वाली नहीं । उनके बीच की आपसी ईर्ष्या के दंश उभर ही न सके। हर रानी को सहज आश्वस्ति महसूस हुई, कि स्वामी उसका एकमेव और एकान्त अपना है । हर रानी सब रानी है । सौत है ही नहीं।
और वारिषेण यों अपने अन्तःपुरों से सहज ही निष्क्रान्त हो गया। वियोग मानो हुआ ही नहीं, अपने योग में सबको अनायास आत्मसात् कर गया । उसे प्रतीति हुई कि अर्हन्त का अनुगृह, कितना व्यापक और दूरगामी होता है ।
__.. लेकिन रुकना अब यहाँ सम्भव नहीं । कहीं भी, और किसी पर भी रुका नहीं जा सकता। किसी पर भी रुकना, उसे बाँधना और उससे बँधना है ।
और बन्धन जहाँ है, वहाँ बिछुड़न है ही। लंगर नहीं डाला जा सकता, किसी भी किनारे में । वह ध्रुव में ही सम्भव है, जहाँ असंख्यात द्वीप-समुद्र, उनकी सृष्टियाँ, ये सारे अन्तःपुर और सुन्दरियाँ, देश-काल की बाधा से परे, उसे प्रतिपल सहज सुलभ हो जायेंगे।
कितना मोहक सपना है ? पर इसका जीवन में रूपायन क्या इतना सरल है ? · · · और हठात् उसके सामने मृत्यु प्रश्न-चिन्ह को तरह आ खड़ी हुई । उसके अज्ञात और अथाह अन्धकार को सम्मुख पा कर वह थर्रा उठा । क्या यह सुन्दर जीवन-जगत, इसके सारे ऊष्म सम्बन्ध, इसके सारे आकर्षण और सौन्दर्य केवल मृत्यु में समाप्त हो जाने के लिये हैं ? क्या वे मृत्यु से आगे नहीं जाते ? उसे पार करके, क्या वे किसी सुन्दरतर आगामी जीवन में अतिक्रान्त नहीं होते ?
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