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________________ १७५ हठात् उसके देह, प्राण, मन में एक विप्लवी उथल-पुथल सी हुई । उसका नाड़ीमण्डल झनझना उठा । उसके स्नायुजाल में एक अजीब सुखद सरसराहट हुई। फिर हठात् उसका समग्र अस्तित्व एक स्तब्धता में निश्चल हो गया । ' और अगले ही क्षण उसे लगा कि उसकी साँसों में नन्दनवन की सुरभित हवा बह रही है । उसके रक्त में मधुच्छन्दा की गान लहरी उठ रही है। उसके तन, मन, चेतन में एक अजीब और अपूर्व सुरावट सध गयी है । चारों ओर की तमाम प्रकृति और सृष्टि मानो उसके साथ सुसम्वादी हो गयी है । हर वस्तु और व्यक्ति की मौलिक सम्वादिता उसकी इन्द्रियों में ध्रुपद के आलाप की तरह बज रही है । उसके अंग-अंग में जाने कैसा मार्दव ज्वारित हो रहा है । जैसे उसके शरीर में से अस्थियों का अवरोध छू-मन्तर हो गया है । एक सुनम्यता में वह विसर्जित होता जा रहा है । 3 उसे लगा कि यहाँ पदार्थ और प्राणि मात्र मुक्त हैं, स्वाधीन हैं। एक-दूसरे को जकड़े हुए नहीं हैं। एक-दूसरे में सहज समाहित हैं, फिर भी अपने आप में स्वतंत्र अवस्थित हैं । यहाँ का वैभव, ऐश्वर्य और भोग, किसी के अंगूठे तले दबा नहीं है । वह बलात्कृत नहीं, व्यभिचरित नहीं प्रकृत है । सभी एक-दूसरे को यहाँ सहज ही दे रहे हैं । कोई किसी को भोगता नहीं । एक भीतरी योग है, स्वाभाविक संयुति है । उसमें वे परस्पर सहज ही भक्त हैं, फिर भी मुक्त हैं । वारिषेण ने उस सौन्दर्य और संवाद को अपने रक्त छन्द में उपलब्ध कर लिया, जिसके लिये मानो जन्मों से उसकी आत्मा तरस रही थी । उसने प्रभु के श्रीमुख से सुना : 'राजभोग और राजलक्ष्मी क्या तुम्हारी है ? जानो अभिजात पुत्रो, तुम जिस सम्पत्ति पर अधिकार किये हो, वह चोरी और बलात्कार की है । पराई वस्तु का स्वामित्व कब तक भोगोगे ? और भोग ? स्वामित्व ? वह कौन किसका कर सकता है ? स्वयम् ईश्वर हुए बिना ऐश्वर्य का मुक्त और शाश्वत भोग कैसे सम्भव हैं ? - ' राजगृही के राज-प्रासादों में जिस त्रासदी से वह जन्म से ही पीड़ित रहा, उसके मूल स्रोत को उसने खुली आँखों स्पष्ट देख लिया । उसमें वह अब कैसे लौट सकता है ? फिर भी तो संस्कार पूरे होने थे । औपचारिक रूप से उसका शरीर राजगृह लौटा ही । अपनी नई आँखों से एक बार वह उस परित्यक्ता राजलक्ष्मी को देखना चाहता था । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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