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________________ १७४ वारिषेण के अन्तःपुर में कई युवरानियाँ थीं। पर जिस रति-सुख का पूर्वआस्वाद उसके मन में था, उसे वह अपने रनिवास में कभी पा न सका था। उसे प्रतीति हुई थी कि साम्राजी अन्तःपुर की रानियों और प्रियाओं को छुट्टी ही नहीं थी, कि वे अपने को दे सकें, व्यक्त कर सकें । एक प्रकाण्ड सुवर्ण-शिष्न के हठीले आघातों तले कसमसाती मांस की पुतलियाँ झठी आहें और सिसकारियाँ भरती थीं। कोई किसी की बाँहों में नहीं था, फिर भी एक परिरम्भण यहाँ अन्तहीन चल रहा था। महारानी नन्दश्री के आत्मदान की संसार में तुलना नहीं। चेलना ने क्या बचाया श्रेणिक से ? नन्दा और धारिणी के लावण्य-समुद्र आकाशों में अवारित छटपटाये । पर उनका भोक्ता हिरण्य के पात्र में कैदी था। इसी से उसके प्यार और वासना की अनन्त पुकार किसी रानी की आत्मा के तट को बींध नहीं पाती थी। कितने विवश हैं ये सब इस जड़त्व के अंधकार में। कीड़ों की तरह बजबजाने के लिये। परस्पर एक दूसरे से व्यर्थ ही टकराने के लिये। __यहाँ उगने के दिन से ही वारिषेण अपनत्व खोजता रहा है । और उत्तर में सामने आया है, रेत का समुद्र। उसकी दूरियों में मोहक लहरों की तरंगें हैं, आकर्षण के भंवर हैं, शीतल जलाशय और छाँव का आमंत्रण है । पर पास पहुंचते ही वहाँ, एक निचाट वीरान सूनकार ही उसाँसें भरता सामने आता है। वारिषेण अपने आपको ही पराया और अजनवी हो गया। वह जाये तो कहाँ जाये, करे तो क्या करे ? ___ अचानक ही ठीक मुहूर्त आ पहुँचा । कुमार वारिषेण अपने साम्राजी परिवार के साथ श्री भगवान के समवसरण में गया । __वैभव और ऐश्वर्य के बेशमार मण्डल । स्वर्ग और पृथ्वी के सारभूत सौन्दर्य के केन्द्र में उसने अर्हत् महावीर को गन्धकुटी की मूर्धा पर आरूढ़ देखा । कामिनी और कांचन उनके चरणों में लुट रहे थे । और वे उससे अछूते, अधर में आसीन थे। उस केन्द्र के उत्स में से ही मानो यह सारी सम्पदा प्रवाहित है। फिर केन्द्र उन्हें क्यों बटोरे ? हिरण्मय पुरुष की पदरज से ही तो यह मारा हिरण्य झड़ रहा है। वारिषेण ने वन्दना करके, मस्तक ऊपर उठाया। उसे लगा कि प्रभु एकटक केवल उसे ही देख रहे हैं । उनकी वह उन्मीलित चितवन मानो एक मात्र उसी के लिये है । वारिकुमार की नसों में एक खामोश बिजली कड़की । और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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