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________________ १७३ थी। क्योंकि सम्राट कभी भी आ सकते थे । और सम्राज्ञी की शैया अपनी नहीं, रमण को थी, सम्राट की थी। बढ़ती हुई वय के साथ वारिकुमार साम्राज्य, सत्ता, सम्पत्ति के गुंथीले नाग-चूड़ को बहुत साफ़ और आरपार देखने लगा था । यहाँ जैसे साँस भी कपटकूट में ही ली जा सकती है । सम्वेदन और भाव भी उठते हुए डरते हैं। लुकछुप कर उठते हैं, और व्यक्त होने से पूर्व ही घुट कर मर जाते हैं । यहाँ व्यक्तियों और वस्तुओं के बीच अनेक अनुबन्ध है, प्रतिबन्ध हैं। उनके बीच एक बाज़ार है। वे खुल कर एक-दूसरे से घुल मिल नहीं सकते, एक-दूसरे को दे नहीं सकते। जीवजीव के वीच यहाँ परस्पर उपग्रह नहीं । यहाँ सब बेचा और ख़रीदा हुआ है। सब के बीच यहाँ शर्त और सौदा है । सम्राट की अनेक रानियाँ हैं। देशदेशान्तरों से आयी अपरूप सुन्दरी प्रियाएँ हैं । लोक-मोहिनी गणिकाएँ हैं । उनके साथ राजा का सम्बन्ध सीधा, सरल और स्वाभाविक नहीं । उनके उद्दाम यौवन और लावण्य शर्तों को कंचुकियों में जकड़े हैं । मुक्त रक्त और नग्न देहों के बीच यहाँ सीधा सम्पर्क नहीं, त्वचा से त्वचा बोलती नहीं । कामिनी का सौन्दर्य और काम यहाँ कांचन से आवरित है। त्वचा से त्वचा एक जीव नहीं होती, सुवर्ण से सुवर्ण टकराता है । मांस के पीपों के बीच, बारूद के अदृश्य गोले हैं, जो कभी भी फूट और फट सकते हैं । और सौन्दर्य यहाँ केवल उसमें भस्म हो जाने को है। ___साम्राजी सिंहासन के तल में अतल अँधियारी खन्दक खुली है। उसमें इतिहास का सड़ा खून खदबदा रहा है। उसमें से आक्रन्द करते प्रेतों की चीत्कारें सुनाई पड़ती हैं । वारिषेण राजमभा में बैठा अचानक उन्हें सुनता है। उसका दम घुटने लगता है । वह भाग जाने की दिशाएँ टोहता है। पर चारों तरफ भालों और तलवारों के जंगल हैं । बल्लमों और तीरों के परकोट हैं । हवा में फाँसियों के फन्दे हैं । और सम्राट के रत्नछत्र पर औंधी शूली सदा तुल रही है । · · · वारिषेण ललकार उठना चाहता है : 'ओ राजा, तू सम्राट नहीं, गुलाम है। तू एक विराट् कारागार में कैद है। तेरे क्रीड़ा-कुंजों और विलास-शैयाओं में सर्पो की स्निग्ध राशियाँ बिछी हैं। उनमें नीले-हरे कालकूट की नीहारिकाएँ टंगी हैं। तेरी रमणियों की जांघों में रभस नहीं, रिलमिलाते भुजंगम हैं, दंश करते वृश्चिक हैं। चौदह पृथ्वियों के चक्रवर्ती, तू हर पल एक विराट षड्यंत्र के बीच साँस ले रहा है ! . . .' ___और इस साक्षात्कार की ऊर्जा वारिषेण को कहीं और ही उत्क्रान्त कर के मुक्त कर देती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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