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पर वह देखता था कि इस साम्राजी परिवेश में कहीं अपनत्व की ऊष्मा नहीं, गन्ध तक नहीं । यह एक सर्वथा पराया देश है । यहाँ वस्तुओं और व्यक्तियों के बीच कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं । वे परस्पर को अवकाश नहीं देते, स्वीकारते नहीं। सजीव और निर्जीव सारे पदार्थ, प्राणी और मनुष्य यहाँ एक-दूसरे को अजनबी हैं ।
निरन्तर की प्रश्न-वेदना के कारण, कभी-कभी उसका दर्शन और अवबोधन बहुत सूक्ष्म और गहरा हो जाता । वह इस अपार राज्यश्वर्य की विषम स्थिति को नग्न देख लेता था । उसे हठात् अहसास होता : कि यहाँ की सारी चीजें, सारे व्यक्ति, तमाम चेहरे एक विक्षिप्त विद्रोह से रात दिन उबल रहे हैं। जैसे वे किसी दारुण बन्धन और बलात्कार के अंगूठे तले दबे हैं । वे सहज स्वयम् रहने या क्रिया करने को स्वतंत्र नहीं । यहाँ वे निरन्तर एक हत्या और मृत्यु में जीने को अभिशप्त हैं।
इतना बड़ा हो गया वारिषेण, पर अब भी उसे अपनी माँ का आँचल खींचता है । माँ का दूध उसे मिला ही नहीं । धाय माताओं और दासियों के ख़रीदे स्तनों का दूध पी कर ही वह बड़ा हुआ है । जब वह धावन करता तो उन क्रीताओं के रक्त में उबाल न आता। उनकी छाती में दूध की उमड़न न होती। मातृ-पयस् के लिये आत, तृषित वारिषेण के अंगों में और दाँतों में एक किरकिरी-सी होती। क्यों नहीं ये बाँहें कस कर मुझे अपनी छाती से चाँप लेतीं ? क्यों नहीं इनके स्तन मेरे मुंह में बरबस उमड़ आते ? और कुमार अपने रक्त की कुलन से विवश हो, धाय-माँ के स्तनों को दाँतों से भींच, बलात् उनसे दूध खींच कर पीता । वह दूध होता था, या खून होता था, कौन जाने ? मातृ-स्तन की गंध और ऊष्मा, तथा उसके दूध का वह निविड़ ममताकुल सुख उसने मानो जाना ही नहीं । सम्राज्ञी के वक्षदेश पर पहला और अन्तिम अधिकार सम्राट का था ।
समझदार हो कर वारिषेण इन कटु सत्यों को गहराई में बूझने लगा था। शैशव में माँ उसे कितना चाहती थी, यह वह देख सका था । माँ अचानक मौक़ा पा कर विव्हल गाय-सी रम्भाती आती, और अपने बछड़े को छाती में भींचभींच लेती कि सहसा ही परिकर की हजार आँखें उसे पकड़ लेतीं, माँ का मन कुण्ठा से भर जाता। महारानी का गौरव-सम्भ्रम ऊपर आ छा रहता। आज्ञा में प्रस्तुत धाय-दासी के हाथ बालक को थमा, वे छाती में रुदन दबाती हुईं, अपने विलास-कक्ष में जा लेटतीं। पर माँ का रोना, उसको ममता वहाँ वैध न
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