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सौन्दर्य और यौवन के सीमान्त
महारानी चेलना का द्वितीय पुत्र वारिषेण अपनी दृष्टि में एक तीखा प्रश्न लेकर जन्मा है । बचपन से ही वह अपने आस-पास की तमाम चीजों का नामपता पूछता रहता था । पर चीजें उत्तर में मूक, कुण्ठित रह जातीं । उनके साथ उसका कोई योग सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता । मानो वे स्वतन्त्र नहीं हैं, उनकी स्वतंत्रता छीन ली गई है । उनके सौन्दर्य को दबा दिया गया है, मसल दिया गया है ।
में
उसे लगता कि रत्न कक्ष की सुखद शैया में आवाहन नहीं है । सुवर्ण थालों • सम्मुख आये रसाल भोजन, नीरस माटी से लगते हैं । राजोद्यान के वृक्ष, गुल्म, लता, फूल, फल, विमुख और उदास लगते हैं । उन्हें झपट कर तोड़ लेना पड़ता है, वे स्वयम् अपने को कुमार के प्रति देते नहीं । सरोवरों के जलों में शीतल सुगन्ध और ताज़गी नहीं, एक बासीपन है, एक अस्वाभाविक ताप है । क्या जल ने भी इस राजोद्यान में अपनी शीतलता त्याग दी है ?
वह मन ही मन पूछ उठता : 'ओ जल, तुम तुम्हें जुर आ गया है क्या ? ओ फूल, तुम मेरे गालों को प्यार क्यों नहीं करते, मुझे अपने पराग से क्यों नहीं नहलाते ? ओ सरोवर के हंस, मैं तुम पर सवार होना चाहता हूँ, तो तुम भाग क्यों खड़े होते हो ? ओ क्रीड़ा पर्वत के हरिणो, मैं तुम्हारी काली भोली आँखों को चूमना चाहता । पर तुम मुझ से आँखें चुरा कर सल्लकी वन में जा छुपते हो । ओ शशक, तुम्हारे मुलायम रोयें, एकाएक मेरी बाँहों में काँटें क्यों हो उठते हैं ?' पर वारिषेण को कोई उत्तर न मिलता । सारे ही सौन्दर्य, कोमलता, स्वाद, भोग्य पदार्थ जैसे उदास हो कर उससे मुँह फेर लेते हैं ।
वारिषेण इसी व्यथा में किशोर से तरुण हो चला । समझ जागने के साथ उसका सन्ताप और भी बढ़ता ही गया । उसके जी में भाव और प्रीति की लौ-सी जल उठती। वह अपनत्व देना और पाना चाहता था ।
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