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________________ १७० 'वही मेरुप्रभु हस्तिराज, अनुकम्पा की वेदना में तप कर, मगध का ऐश्वर्यलालित राजपुत्र मेघकुमार हुआ। तेरे गर्भकाल में तेरी माँ को दोहद पड़ा था, कि अकाल ही मेघ-वर्षा हो, और वह उसमें नहाये । उसकी साध पूरी हुई, सारी सृष्टि मेघ-वर्षा में नहा कर शान्त हो गयी । और मेघकुमार का जन्म हुआ । ___ जिसमें अनुकम्पा होती है, उसके चरणों में ऐश्वर्य अनाहूत आता है। पर तू उसे छिलके की तरह उतार कर फेंक आया। अज्ञानी पशु मेरुप्रभ हाथी में भी जब ऐसी अनुकम्पा और तितिक्षा थी, तो ज्ञानी मेघकुमार क्या उससे कमतर हो जायेगा ? अपने निजत्व को पहचान, देवानुप्रिय । हाथी से यहाँ तक की यात्रा में, जो सदा तुझ में ध्रुव रहा, उसे देख । देख, देख, देख ! जान, जान, जान !' ___ एक महामौन के मंडल में ओंकार ध्वनि के छोर लीन होने लगे । मेघकुमार को लगा कि उसे प्रभु के श्रीचरण-कमल में उठा लिया गया है । वह प्रहर्षित होकर बोला : ___ 'मैं अपनी धुरी पर निश्चल हो गया, भन्ते भगवान । मंदराचल हिल जाये, पर यह सम्यक् श्रदा चलित नहीं हो सकती। महावीर का चरण मेरे वक्ष पर छप गया है। पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभु जयवन्त हों!' ‘अपने पूर्णत्व को देख, सौम्य । वह सदा वहाँ है । तू उसमें विराजित हो।' मौन । उसकी तरंगों में एक उत्सव-रागिनी उठ रही है। 'लगता है, प्रभु, चंचल शरीर तक ने भीतर के अचल में लंगर डाल दिया है । जैसे मैं क्षुण्ण हो ही नहीं सकता। यह अनुभव इतना प्रत्यक्ष और शारीरिक है, कि देह और देही का भेद ही समाप्त हो गया है। यह कैसा ऐश्वर्य है, स्वामिन् ?' ___ 'अर्हत् के राज्य में, ऐसे अनेक ऐश्वर्यों के महल देखेगा। अमृत के स्रोतों पर क्रीड़ा करेगा। स्वयम्भुव हो, देवानुप्रिय । शाश्वत में जी, आयुष्मान् !' मेघकुमार को अनुभव हुआ, कि वह पूर्णत्व के समुद्र में सम और स्वच्छन्द तैर रहा है । और तट पर खड़ा हो कर, अपनी उस क्रीड़ा को देख भी रहा है । सहसा ही भगवद्पाद गौतम का आदेश सुनाई पड़ा : 'आर्य मेघकुमार श्रमणों के बीच उपविष्ट हों।' और मेघकुमार धीर गति से चलता हआ, श्रमण-प्रकोष्ठ में विराजमान अनेक श्रमण-मुण्डों के वन में खो गया । वह उन्हीं में से एक हो गया। उनमें से हर कोई हो गया। · · ·और उसे लगा, कि वह कोई नहीं रह गया है ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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