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________________ १६८ मेघ को लगा कि जैसे यह आवाज़ उसके अपने भीतर के भीतर से आ रही है । ये प्रभु कितने अनन्य अपने हैं । ठीक उसकी पीड़ा और कुण्ठा को छू कर बोल रहे हैं । 'पूर्णत्व का खोजी, अपूर्ण की स्वल्प सीमा के एक ही आघात से चूर-चूर हो गया ? अपूर्ण की टक्कर से प्रतिक्रियाग्रस्त हो गया ? प्रतिक्रिया जब तक है, अखंड और पूर्ण में अवस्थान कैसे सम्भव हो । जो अप्रतिकृत रहता है, ही अखंडित रह सकता है, मेघ। जिसकी महिमा ओरों पर निर्भर हो, वह महिम कहाँ ?' 'लेकिन स्वयम् प्रभु का परिवेश इतना विषम हो, तो श्रद्धा कैसे हो, आस्था कहाँ टिके ?' 'जो विषम हैं, वही तो यहाँ सम होने आये हैं । वे सम होते, तो यहाँ ते ही क्यों ? अर्हत के परिवेश में सारे वैषम्य अन्तिम रूप से उभरते हैं । देख, तेरा मान कषाय भी यहाँ नग्न हो कर सामने आ गया !-• 'और सुन देवानुप्रिय, जान-बूझ कर किसी ने तुझे नहीं गंधा है । कई शरीर जहाँ एक साथ अस्तित्व और आत्म-रक्षा के संघर्ष में हैं, वहाँ टक्कर तो कदम-कदम पर है, सुकुमार श्रमण मेघ । वहाँ सब अज्ञानवश ही एक-दूसरे का पीड़न, अवहेलन कर रहे हैं । नहीं चाहते भी, अनजाने सब एक-दूसरे को चोट दे रहे हैं । इसका एक ही निराकरण है : हम एक-दूसरे को अवकाश दें । परस्पर की सीमाओं को जानें और सहें । सह-अस्तित्व ही एकमात्र धर्म्य है । हम एक-दूसरे के लिए बलि दे कर, एक-दूसरे को समायें । तितिक्षा से ही इस वैषम्य को तरा जा सकता है। 'अवस्थित हो रहा हूँ, भन्ते देवार्य । पर भीतर ध्रुव की वह चट्टान अभी हाथ नहीं आ रही ।' 'अपनी उस तितिक्षा को देख, अपनी उस अनुकम्पा को जान, जिसके कारण आज तू यहाँ है । अपनी महिमा को तू स्वयम् साक्षात् कर !' 'मेघकुमार पर सहसा ही अति सुकोमल फूलों की राशियाँ बरसने लगीं । वह शीतल, शान्त, निस्तरंग हो गया । वह केवल दृष्टि मात्र रह गया । उसने भगवान के श्रीवत्स चिन्हित वक्ष देश में आँखें स्थिर कर दीं। श्री में एक अथाह अन्धकार का समुद्र खुल आया । और मेघुकुमार उन वीरान पानियों में गोते लगाता, मृत्यु से जूझता, हाथ-पैर मारता, तैरता चला गया... Jain Educationa International और सहसा ही वैताढ्यगिरि की तलहटी में उतर कर, उसने पाया कि वह मेघकुमार नहीं, मेरुप्रभ नामा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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