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________________ १६७ पर साष्टांग प्रणिपात में नत हो गया । फिर उठ कर उसने शची के हाथ से पीछी - कमंडल अंगीकार किया । वह जिनेश्वरी प्रव्रज्या में दीक्षित हो गया । आर्य गौतम के इंगित पर वह श्रमणों के प्रकोष्ठ में जा कर बैठ गया । इस बीच भगवान के श्रमण संघ का पर्याप्त विस्तार हो गया था । उच्च सम्वेदनशील आत्माएँ, एक बार श्रीभगवान के सम्मुख आ कर लौट नहीं पाती थीं । अनेक राजा, राजपुत्र, श्रेष्ठी, राजवंशी और सर्व साधारण जन तथा अन्त्यज सर्वहारा तक समान रूप से प्रभु के भीतर अपना परम आत्मीय देख, उनके अंगभूत श्रमण हो गए थे । I प्रभु के श्रमणागार में आज मेघकुमार के लिए दीक्षा के बाद की पहली रात्रि थी । अनुशासन के अनुसार, छोटे-बड़े के क्रम से मुनि मेघकुमार अन्तिम संथारे पर लेटे थे । इसी से अँधेरे में बाहर आते-जाते मुनियों के पैर सुकुमार श्रमण मेघ के अंगों पर पड़ जाते थे । उसे लगा कि वह अनेकों की ठोकरों में लेटा है । मानो उसे कई पैर गूंधते हुए निकल रहे हैं । इसमें मेघ ने भारी अवमानना अनुभव की । सुख और वैभव के मृदुल आच्छादन में रसा-बसा अहम् जाग कर द्रोह कर उठा । मेघ में एक तीव्र प्रतिक्रिया हुई : 'आज मैं वैभवहीन हो गया, इसी से मनुष्य की ठोकरों में आ पड़ा हूँ । मगध के युवराज के रूप में यही श्रमण मेरा कितना सम्मान करते थे । वह आवरण उतर गया, तो मैं असंग अनगार श्रमणों की निगाह में भी महावीर के श्रमणागार में भी वैभव जाते श्रमण भी सत्ता और सम्पदा से क्या सार्थकता ?' कौड़ी मोल का हो गया । क्या समत्व- मूर्ति की ही पूजा है ? क्या ये निर्ग्रन्थ कहे आतंकित हैं ? तो फिर मेरे यहाँ होने की और कुंठित हो कर मेघ ने निर्णय लिया : 'नहीं, मैं यहाँ सकूंगा। कल प्रातःकाल ही प्रभु के निकट प्रव्रज्या का परित्याग प्रस्थान कर जाऊँगा ।' Jain Educationa International नहीं ठहर कर यहाँ से प्रातः की धर्म-पर्षदा में, तरुण मुनि मेघकुमार, नत मस्तक समक्ष उपस्थित हुए । उनकी आत्मा प्रतिक्रिया और विद्रोह से उनकी नस-नस में ऐंठन हो रही है। उनका बोल फूट नहीं पा रहा । चरम शरण जाना था, वहाँ भी क्या उसे शरण नहीं ? एक सुनाई पड़ा : भगवान के विक्षुब्ध है । • जिसे For Personal and Private Use Only 'शरण न महावीर में है, न श्रमणागार में है, मेघ । वह स्थान तेरे भीतर है, बाहर के किसी भी व्यक्ति और संस्थान में नहीं । किसी भुगोल में नहीं ।' • और उसे एका www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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