SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मैं श्रीचरणों में जिनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ, भगवन् ।' भगवान ने कोई उत्तर न दिया। एक निस्तरंग मौन में सब स्तब्ध हो रहा। 'आज्ञा दें स्वामिन्, आवरण-वसन अब असह्य लग रहे हैं।' 'तुझे जिसमें सुख हो, वही कर, वत्स ।' 'क्या प्रभु ने मुझे अपनाया नहीं? मुझे अपने ही ऊपर छोड़ दिया ?' 'निदान वही सत्य है, मेघ राजकुमार । शास्ता का आदेश भी तुम्हारे ही उपादान में से आता है।' 'तो मेरा उपादान इतना निर्बल है, कि भगवान आदेश नहीं दे रहे ?' _ 'तू निरा कोमल ही रह गया, मेघ । परुष की टक्कर से अनजाना है। तू कठिन और दुर्गम से पलायन करता है। दुःख, जरा, मृत्यु, वियोग को तूने स्वीकारा नहीं। उन्हें यथास्थान स्वीकारे बिना, उन्हें जय कैसे कर सकता है ? अस्तित्व की त्रासदी का सामना करना होगा। उससे सीधे आँख मिलाते हुए, उसे हड्डी-हड्डी में झेलते हुए, उससे पार हो जाना होगा। विषम के चूड़ान्त पर ही समत्व का सिंहासन बिछा है। दुर्गम की खड़ी चढ़ाई स्वयं चढ़े बिना, अगम में कैसे पहुँच सकता है ? मृत्यु को आलिंगन दिये बिना अमरत्व में कैसे उत्तीर्ण होगा?' 'तो मैं प्रभु की कसौटी पर खरा न उतरा?' "शास्ता कसौटी नहीं करते, वे केवल दर्पण सामने रखते हैं। कि अपने को सम्यक् समूचा देखो, जानो और पाओ। अपने रन्ध्र को भी देख, अपने नीरन्ध्र को भी देख ।' पल भर को फिर एक गहरी निस्तब्धता व्याप गई। उसमें कोई अलक्ष्य स्पन्दन, कोई अचूक क्रिया कहीं होती रही। 'दर्पण में मेरे ढेर-ढेर कोश उतर रहे हैं, देवार्य । अपनी सारी सीमाओं, दुर्बलताओं को देख रहा हूँ। पर उन पर रुकू कैसे ? यह गति अरोक और अनिर्वार है । प्रभु का प्रतिरूप न हो जाऊँ, तो अस्तित्व में ठहरना नहीं हो सकता ।' 'तू निर्वसन हो गया, मेघकुमार ! पर इतना ही पर्याप्त नहीं। तलवार की धार सामने है। इससे अब बचत नहीं । चल इस पर, और जान अपनी सामर्थ्य ।' शची आर्य गौतम द्वारा प्रदत्त मयूर-पीछिका और कमण्डल ले कर प्रस्तुत हुई । मेघकुमार गन्धकुटी की तीन प्रदक्षिणा दे, गन्धकुटी के अन्तिम सोपान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy