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________________ १६० 'आखिर देश और काल के बाहर तो नहीं जा रहे। जा भी नहीं सकते। तो पूछती हूँ उस स्थान का पता, जहाँ जाने को तुम उद्यत हो।' 'देश-काल में हो कर भी, उससे बाहर । तीर्थंकर महावीर के श्रीचरणों में। वे भगवान देश-काल में सदेह विद्यमान हैं, फिर भी उससे ऊपर हैं, अपनी चेतना में। मेरा घर वहाँ है। क्योंकि वहाँ मृत्यु नहीं।' ‘समझ रही हूँ तुम्हें। पर मेरी इन आट युवरानियों ने क्या अपराध किया है। कि उनसे उनका सर्वस्व छीन जाओगे। समुद्रों को पार कर, तुम जिन्हें खोज लाये, ऐसी वे विलक्षण सुन्दरियाँ। यौवन की मझधार में, उन्हें दगा दे जाओगे?' सौन्दर्य और यौवन ? दर्पण में अपना चेहरा देखता हूँ तो लगता है, मेरा यह लावण्य से दीप्त, स्निग्ध चेहरा, हर क्षण मुझे धोखा दे रहा है। देखतेदेखते यह क्षय हो रहा है। और एक दिन यह बूढ़ा हो जायेगा। झुर्रियों से भर कर विरूप हो उठेगा, माँ! 'उफ्, मेरा यह कोमल कान्त चेहरा एक दिन बुढ़ापे से जर्जर हो जायेगा! यह मुझे असह्य है। मेरा रूप-यौवन ही जब अपना नहीं, तो युवरानियों के रूपयौवन का मैं क्या करूँगा? और सर्वस्व यहाँ कौन किसी का हो सकता है, सिवाय अपने आपके, और उसे कौन किसी से छीन सकता है !' तुम्हारी यह फूलों में लालित सुकूमार काया। तुम्हारा यह विलासी मन । और तुम कंकड़-काँटों पर चलोगे? कठोर शिलाओं पर लेटोगे?' 'कोमल शैया, और विलास में भी चैन कहाँ आया, माँ ? जाना चाहता हूँ उस शैया, विलास और रमणी की खोज में, जो क्षय न हो, दग़ा न दे। जो स्वाधीन हो। प्रिया, जो अन्या न हो, अपनी ही अनन्या हो' ___ शरीर में वह सम्भव नहीं। यह कोरी हठ है, बेटा। भ्रान्ति है, केवल एक उद्दाम उड़ान का नशा है।' ___'अर्हत् महावीर सदेह, शाश्वत सौन्दर्य और यौवन में, आँखों आगे विद्यमान हैं। तुम स्वयं उन्हें देख आयी हो। क्या महावीर हठ है, भ्रान्ति है, नशे की उड़ान मात्र है?' राजा और रानी निरुत्तर, मूर्तिवत् रह गये। सम्राट ने शतरंज की चाल की तरह एक विकल्प सरकाया : 'सुनो बेटे, अभय राजकुमार आगामी मगध साम्राज्य का सूत्रधार है। फिर भी मैं जानता हूँ कि वह सिंहासन नहीं स्वीकारेगा। कुणीक अजातशत्रु ने चम्पा में मगध के विरुद्ध प्रति-साम्राज्य की नींव डाली है। तो फिर मगध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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