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के राज्यासन का उत्तराधिकारी तुम्हारे सिवाय और कौन हो सकता है, बेटा ! क्षत्रिय हो कर राज्य के दायित्व से मुंह मोड़ना, तुम्हारे जैसे ज्ञानी के योग्य नहीं।'
"राज्य किस लिये, राजा किस लिये, बापू ?' 'प्रजा के पालन, परित्राण, और संरक्षण के लिये।'
'पृथ्वी पर इससे बड़ा कोई झूठ नहीं, महाराज। हजारों वर्ष के पुराण और इतिहास में, हर राजा ने केवल अपने अहम् और स्वार्थ की तुष्टि के लिये राज किया है। हर सत्ताधारी अपनी सत्ता, महत्ता, प्रभुता के भोग के लिये यहाँ राज्य करता है। प्रजा का परिपालन और परित्राण तो एक ओट और बहाना मात्र है।'
'तो क्या सारा इतिहास मिथ्या है, केवल तुम सत्य हो ?'
'इतिहास अपनी जाने । मैं किसी भ्रान्ति में नहीं हूँ। महावीर ने इस भ्रान्ति को तोड़ा है। इसी से तीनों लोक और काल के ऊपर आसीन हो गये हैं।' ____'लोक का परिपालन तो राजलक्ष्मी के आसन से ही हो सकता है, बेटे। वह माँ है, जगत की धात्री है।'
'उस राज-लक्ष्मी के आसन पर बाप और बेटे के बीच तलवारें तनी हुई हैं। अजातशत्रु की साम्राज्य-लालसा श्रेणिक के रक्त की प्यासी है। जिसे आप राज-लक्ष्मी कहते हैं, वह माँ नहीं, वारांगना है। वह कभी किसी की हुई नहीं, होगी नहीं। उसके मायाजाल और दुश्चक्रों का अन्त नहीं।
‘ओर सुनें महाराज, हर शासक सत्ता पर आते ही प्रजा को गुलाबी सपनों में भरमाता है। धरती पर स्वर्ग लाने का आश्वासन देता है। और उसका अन्त होता है, अहम् और स्वार्थ की मोहक कुहेलिका में। अन्ततः वह शोषक
और पीड़क हो कर रहता है। राज्य और राजनीति के इस वारांगना-विलास ने, मनुष्य के तमाम इतिहास को खखार शूली बना कर छोड़ दिया है।'
'राज्य धर्म का भी हो सकता है, मेघ । श्रेणिक ने कुछ भी किया हो, वह परित्राता है, और धर्म की मर्यादा उसने नहीं लोपी है।'
'आदिकाल से यह धर्म-राज्य की बात चलती आयी है, सम्राट। ऋषभ, रघु, राम और कृष्ण ने धर्मराज्य की स्थापना के लिये अपराजेय संघर्ष किया। अपनी सम्पूर्ण आत्माहुति दे दी। फिर भी कुत्ते की दुम टेढ़ी ही रह गई। राम को भी एक दिन विषाद व्यापा ही। अस्तित्व के संत्रास और निष्फलता ने उन्हें उदास कर दिया। स्वयं भगवान राम, राज्य त्याग कर वन चले गये। अपनी आत्मा की खोज में। पूर्ण पुरुषोत्तम कृष्ण ने, असुर शक्ति की पराजय
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