SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५९ पूछा धारिणी देवी ने : 'लोक के बाहर कौन जा सका है ? उससे बाहर तो सिद्ध और सत्ता की भी गति नहीं, बेटा ।' 'लोक सत्ता है, वह सत्य है । संसार अज्ञान है, वह असत्य है । वह मिथ्या है । जन्म और मरण का दुश्चक्र ही संसार है। इसे जान कर जो भेद जाता है, वह ज्ञाता दृष्टा हो कर सत्ता और लोक को पूर्णत्व में भोगता है, जीता है, जाता है । संसार से मुक्त होने का अर्थ, किसी निर्वाण में क़ैद होना नहीं है । लोक से परे हो जाना नहीं है । संसार से बाहर हो जाने का मतलब है, जन्म-मरण की जंजीर तोड़ कर, पूर्ण ज्ञान में जीना । इस लोक के सौन्दर्य को पूर्णत्व में भोगना । शाश्वत और त्रिकाली ध्रुव में जीवन धारण करना ।' चकित और मुग्ध हो कर श्रेणिक बोले : 'तुम इतने ज्ञानी हो गये हो, युवराज, यह तो हमने सपने में भी नहीं सोचा था । ' 'मैं ज्ञानी कहाँ, तात ! बस, केवल अपने अज्ञान को देखने लगा हूँ तो इसमें कहीं चले जाने की बात कहाँ आती है ?' 'वर्तमान का अतिक्रमण करने के लिये, किसी ख़ास देश और काल से भी अभिनिष्क्रमण करना होता है । मुझे इस मोह की अन्धी गली से बाहर चले जाना होगा ।' 'कहाँ जाओगे, बेटे ?' 'मैं जहाँ का हूँ, जहाँ से आया हूँ, वहीं । अपने घर लौट जाना चाहता हूँ ।' 'घर तुम्हारा यहाँ नहीं, तो और कहाँ है ? ' ''' 'जहाँ हम सब अनाथ हैं, अरक्षा और अनिश्चय में जी रहे हैं । जहाँ अपनी साँस भी सगी नहीं, वहाँ मेरा या किसी का भी घर कैसे हो सकता है ! आकाश को बाँधने, और तारे तोड़ने के अज्ञान में कब तक जीऊँ ! बिखरते बादलों में घर कैसे बसाऊँ, महाराज ! ' Jain Educationa International धारिणी देवी बेटे की इस ऊँचाई पर मन ही मन आँचल वार गईं। गौरव से उनकी छाती उमगी आ रही है । पर यह बेटा आँचल झटक जायेगा, यह उन्हें निश्चय हो गया है । वे चुप न रह सकीं । कातर स्वर में बोलीं : 'जानती हूँ, तुम्हें रोक न सकूंगी। पर जहाँ भी जाना है, कह कर जाओ ।' 'उससे क्या अन्तर पड़ेगा, माँ ?' For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy