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कोई दस्तक नहीं होती। दस्तक देता है एक निष्फल, निःसार सवेरे का उजाला। और कुम्हलाई फूल-राशियों के बीच, वह अपने को ठुकराई लता सी अनुभव करती है।
. . और फिर हर रानी, बारी-बारी से आधी रात आ कर कुमार के निज-कक्ष के द्वार पर अपना सर पछाड़ गई। लेकिन मेघकुमार की विषादसमाधि नहीं टूटी, तो नहीं टूटी।
उसकी आँखों में एक ऐसे पूर्णकाम सौन्दर्य का चेहरा छाया हुआ है, जिसे देखने के बाद उसकी आत्मा इस महल में नहीं लौट सकी है। लौटा है केवल उसका काम-मानसिक शरीर । अपूर्ण, अतृप्त वासनाओं का एक पिण्ड, एक प्रेत। और वह ऐश्वर्यों के इस रत्नालोक में, अपनी इयत्ता खोजता, रातोदिन काल की चट्टान पर अपना सर मार रहा है।
और रात-दिन के भेद से परे मधु-मालती और कामिनी-कचनार के कुंजों में फूलों की राशियाँ झड़ रही हैं। व्यर्थ और निष्फल । वे अपनी नियति का पता पूछती हुई महक रही हैं। और मेघकुमार उन पर से लुढ़कता हुआ, अन्तरिक्ष के नील में खोया जा रहा है।
नहीं, अब वह इस महल में, क्षण भर भी नहीं ठहर सकता।
महारानी धारिणी के पावस-प्रासाद का सुरम्य उद्यान । उज्ज्वल मर्मर पाषाण को एक पच्चीकारी वाली बारादरी में सम्राट देवी के सामीप्य में बैठे हैं। ऊदे-ऊदे बादल आकाश में छाए हैं।
कि हठात एक विद्युत्-शलाका की तरह मेघकुमार सामने आ खड़ा हुआ । 'मैं अब यहाँ नहीं रुक सकता, सम्राट !' श्रेणिक और धारिणी हक्के-बक्के से रह गये । बोले श्रेणिकराज : 'तुम मेघ, इस समय, यहाँ ? मैं समझा नहीं । तुम किसी संकट में हो?' 'अन्तिम संकट । और मैं इसके चक्रव्यूह को तोड़ जाना चाहता हूँ ।' 'तुम किसी उलझन में हो ? स्पष्ट कहो, अपनी मनोव्यथा।'
'मैं इस कारागार में अब छिन भर भी नहीं ठहर सकता। मुझे चले जाना होगा । इसकी दीवारें मुझे असह्य हो गयी हैं।'
'कारागार ?' 'यह संसार । यह महल ।'
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