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________________ १५७ तरह उसके हाथ से बिखर पड़ती हैं। सारे संसार का रमणीत्व एक साथ क्यों न पा लूँ? पर कैसे? और अपनी सीमित देह को देख कर वह हायहाय कर उठता है। कमल-नाल की तरह कोमल और नम्य है यह मेघकुमार। हवा और पानी की तरह यह चंचल है। एक के बाद एक नाना ऐन्द्रिक सुखों में उसका मन भटकता चला जाता है। कोई पूर्णत्व, कोई किनारा, कोई विराम, कोई शैया, कोई सुगन्ध, कोई रमणी कहीं है, जो अन्तिम हो और परम हो? कि वह उसमें लीन हो कर आपा भूल जाये। बस एक मात्र 'वह' हो कर रह जाये। पर वैसा हो नहीं पाता। उसकी लवंग-लता जैसी लचीली सुकुमार काया के भीतर कहीं एक निश्चल ध्रुव की चट्टान भी है। उसी पर अकेला छूट, स्थिर हो, वह इस मर्त्य जगत की विनाश-लीला का मात्र द्रष्टा हो रहता है। ___.. देखते-देखते यौवन-दीप्त चेहरे की यह स्निग्धता और तराश ढीली पड़ जाती है। उत्फुल्ल लावण्य के कमल मुरझा जाते हैं। कामिनी की सुघर सलौनी बाँहों के तकियों में सिलवटें पड़ जाती हैं। वे शिथिल हो जाती हैं, और कामना का उत्तर नहीं देतीं। तो क्या इस देह में पूर्णत्व सम्भव ही नहीं? और देहातीत कोई पूर्णत्व कहीं हो, तो उसे किसने देखा जाना है ? जिसका कोई रूपाकार नहीं, उसमें सौन्दर्य कैसे सम्भव है, लावण्य और भंगिमा कैसे सम्भव है ? जो इन्द्रिय-भोग्य नहीं, जो मूर्त नहीं, उसमें सुख की क्या कल्पना हो सकती है? मैथुन की चरम तन्मयता में, उसने परम और पूर्ण को छूना, पाना, आलिंगन करना चाहा है। पर उस मूर्छा में जाने कब बाहु-बन्ध छूट गये हैं, आलिंगन टूट गये हैं। और वह बहुत-बहुत वीरान, अवसन्न, अकेला छुट गया है। ___ उसने अपने रमण के छोर पर चाहा है, कि उसकी यह भोग-शया अनन्त और विराट पर बिछ जाये। पर हुआ यह है कि वह शैया सिमट कर स्वल्प और शून्य हो गई है। वह खन्दक में लुढ़क पड़ा है। उसकी वेदना अबूझ हो गई है। पर उसकी रमणी उसमें सहभागी नहीं। कभी न हो सकी। वातायन के बाहर टुपुर-टुपुर वृष्टि में कचनार और कामिनी के फूल बराबर फूल रहे हैं, और झड़ रहे हैं। मेघकुमार की वेदना छोर पर पहुँच कर अपना ही अतिक्रमण कर रही है। ____ अन्तःपुर में हर रानी, हर रात फूलों की अगाध शैया में, आँखों के कुमुद बिछाये, कुमार की प्रतीक्षा करती थक जाती है। पर उसके कक्ष पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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