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वह संचारी जगत, दिगन्तों को पार करता हुआ, जम्बू द्वीप की तट-वेदियों को अतिक्रान्त कर रहा है । और उसकी धुरी पर खड़े हैं त्रिलोकपति तीर्थंकर महावीर ।
• और लो, उन प्रभु ने पहला चरण उठाया है । तो महामेरु और कुलाचल हिल उठे है, उनके प्रथम चरणपात से ओंकार ध्वनि का एक बिराट् मंडल उनके व्यक्तित्व में से प्रसारित होता हुआ, तमाम देश-काल में व्यापता चला जा रहा है । उसमें से फूटते हुए ये तीन पद : 'उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा,' हजाबों में अनुगुंजित हो रहे हैं । ऐन्द्रिक सुखों में मूच्छित देवसृष्टि उस अलक्ष्य बोधि-ध्वनि से अप्रभावित रह गई । शब्द शून्य में डूब गये । प्रभु की वह प्रथम दिव्य ध्वनि महामौन में से उठ कर उसी में विसर्जित हो गयी । वह कहीं प्रतित न हो सकी । भोग- मूच्छित देवों और अज्ञानी मानवों की सीमा पर टकरा कर वह व्यर्थ हो गयी । कैवल्य - स्त्रोत भगवान, श्रोता की खोज में आगे बढ़ गये ।
रात हो आई है । और इस अबेला में ही भगवान नक्षत्र से नक्षत्र तक की डन भरते बिहार कर रहे हैं । परम योगीश्वर के निर्धार शरीर की पगचाप झेलने में मारिल पृथ्वी संकोच में पड़ गयी है । पवनंजयी प्रभु अधर अन्तरिक्ष में ही बिहार कर रहे हैं। देश-काल की तमाम गतियों से परे की है यह गति । . . .
अपने तपश्चर्याकाल में प्रभु सूर्यास्त के बाद कभी विहार नहीं करते थे । वह उनकी महाव्रती अहिंसक चर्या में वर्जित था । पर आज वे त्रिकालेश्वर भगवान सारी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर, विबर्जित और अनिरुद्ध विचर रहे हैं। उनके भीतर ज्ञान के दुर्दम्य प्रपात धसमसा रहे हैं । इस महाविस्फोट में सारी मर्यादाएँ डूब गयी हैं, बेला - अबेला के सारे विवेक और वर्जन पीछे छूट गये हैं । समस्त देश-कालों का स्वामी देश-काल की मर्यादाओं से उत्तीर्ण हो गया है । सारे व्रत, नियम, आचार जिस महासत्ता के स्रोत में से आते हैं, उसका यह अधीश्वर है । इसी से यह जीवन्मुक्त पुरुषोत्तम आज सारी व्रत-मर्यादाओं को तोड़कर, भवारण्य की इस महान्धकार रात्रि में, एकाकी सूर्य की तरह निर्द्वन्द्व और निर्बाध विहार कर रहा है । उसकी पदचाप मात्र से यहाँ के महातमस् के पर्वत विदीर्ण हो रहे है।
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सुदूर मध्यम पावा नगरी से वेद मंत्रोच्चार की तुमुल ध्वनियाँ आ रही हैं । यज्ञों के आकाशगामी हुताशन प्रभु के आज्ञाचक्र में झलक रहे हैं । यज्ञपुरुष एकाग्र गति से, गारूड़ी वेग से, मानो उस हुताशन पर आरूढ़ होने को धावमान है । उसके चलायमान चरणों तले पग-पग पर हवा में विशाल सुवर्ण-कमल बिछते जा रहे हैं । उसकी पदरज को झेल कर वे सुगन्ध और मकरन्द से भरभर उठते हैं। स्वर्ग-सृष्टियाँ उसके आसपास भाँवरें देती चल रही हैं ।
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