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कासनी फूल फंहारों में बरसते रहते हैं। उनकी ऊष्म और शीतल गन्ध घर और प्रिया की ममता से व्याकुल है। मेघकुमार के जी में क्षण भर, किसी रानी के वक्ष में डूब कर विश्रब्ध हो जाने की चाह कसक उठती है। पर यह नई बात तो नहीं। उस कादम्ब रस में भी क्या कभी वह पूरा डूब सका? ऊब गया, और तैरता हुआ किसी विदेशी तट की खोज में भटक गया।
सावन की हवाएँ और फहारें। सारी रात उद्यान में कचनार और कामिनी के फुलवन झरते रहते हैं। और कुमार अपने गौपन कक्ष की शैया पर बेचैन करवटें बदलता रहता है। पीड़ा चरम तक पहुँचती है, और एक-एक मोहग्रंथि चटक कर टूटती रहती है। उससे हड्डियाँ तक तिड़कती रहती हैं।
मेघ अपने अतीत में दूर तक निगाह डाल कर देख रहा है। वह अपने पूरे व्यतीत को फिर गहरी करुणा और अवसाद के साथ इस वक्त जीने को विवश है। ताकि उससे मुक्त हो सके।
उसे याद आ रहा है, कि स्मति और समझ जागने के पहले दिन से ही, उसका मन इस जगत से उचट-सा गया था। उसने लोगों को रोगी और बूढ़े होते देखा था। उसने मनुष्य को मरते देखा था। और उस कारण आत्मीयों को होने वाले शोक-सन्ताप की आँच में वह सदा जलता रहा था।
यदि मृत्यु है, और यहाँ का सब विनाशीक है, तो जीवन का क्या अर्थ और प्रयोजन रह जाता है ? जब हर वस्तु और व्यक्ति में मृत्यु का कीट लगा है, तो वह क्यों जिये? मरण-धर्मा जीवन के अविश्वसनीय और दगाबाज़ सुखों को वह कैसे भोगे? भोजन के आस्वाद, शीतल सुगन्धित हवा की लहर, फूलों की सेज, और प्रिया के स्पर्श-सुख में डूबा ही चाहता है, कि कोई उसे टोक देता है : 'मेघ, इस सुख में विराम कहाँ ? इसका आधार क्या ? बहती हवा
और लहर को बाँधना चाहता है, उसमें बँधना चाहता है ? वह स्वभाव नहीं, मेघ, तू अनहोनी में कैसे लिप्त हो सकता है !' और उसकी साँस में व्यथा की आरियाँ चलने लग जातीं। हर समय मृत्यु का सोच उसका पीछा करता रहता था। और वह उसे यहाँ के हर मर्त्य सुख को भोगने की अनी पर उचाट कर देता था।
उसे लगता था कि वह अपने भीतर वेदना, विषाद और करुणा लेकर ही जन्मा था। रोग, जरा, मृत्यु, शोक, वियोग के बीच रुल रहे इस संसार के हाल पर उसके जी में बहुत हाहाकार था। प्राणी मात्र की करुणा-व्यथा से वह रात-दिन संतप्त रहता था। · · ·कितना महान है मनुष्य, कितना समर्थ ! उसके पौरुष और पराक्रम की जयलेखाएँ काल के भाल पर अंकित हैं। फिर भी कितना असमर्थ, कि एक दिन वह मर जाता है। और उसके बाद • • • ?
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