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वह कोई नहीं रह गया
मगध का युवराज मेघकुमार। रानी धारिणी की कोख से जन्मा श्रेणिक का एक ज्येष्ठ राजपुत्र । उस दिन विपुलाचल के समवसरण में महावीर को देख लेने के बाद वह मानो घर न लौट सका। लौटा था उसका छाया-शरीर, जो उसके एकान्त कक्ष की सुरभित शैया में रातो दिन छटपटा रहा है। ___ गन्धकुटी के कमलासन पर वह एक ऐसे पूर्णत्व को देख और सुन आया था, जिसे पाने और भोगने की तीव्र अभीप्सा उसमें बालपन से ही जाग उठी थी। उस पूर्णत्व को शरीर में प्रत्यक्ष देख लेने के बाद, वह इस अपूर्ण के जगत में घर कैसे लौट सकता था। मेघकुमार स्वभाव से ही अनगार था। इस दुनिया में वह कहीं घर पा ही न सका था। फूलों के चादरों और इत्रों में बसे रेशमी लिहाफ़ों की मुलायमियत में भी, उसके मन को सुरक्षा और विश्राम का अनुभव नहीं हो पाता था। अपनी आठ रानियों के अथाह आलिंगनों में भी, वह बेचैन और अतृप्त ही रह जाता था।
- 'यहाँ कहीं सुरक्षा नहीं, शरण नहीं, घर नहीं, मुक़ाम नहीं। घर और कहीं है, असंख्यात लोक-समुद्रों के पार। वहीं जाना होगा। इस देवोपम भोग
और ऐश्वर्य में भो ठहराव नहीं, केवल गुज़र जाना है, केवल बीत जाना है। केवल रोत जाना है। और फिर आगे बढ़ जाना है। __पर उस दिन श्रीभगवान को जो उन्मीलित चितवन और अकारण मुस्कान उसने देखी, तो उसे तत्काल प्रत्यय हो गया, कि घर यहाँ है, शैया यहाँ है, विश्राम यहाँ है। फिर भी वह छायावत्, यंत्रवत् सब के साथ न जाने क्यों राजगृही के महलों में लौट आया है। लेकिन क्या सच ही लौटा है ?
चाहे जब सावन के बादल टुपुर-टुपुर बरसते रहते हैं। और उस यकसा ध्वनि में, ठीक वातायन के सामने का कचनार वृक्ष झड़ता रहता है। ढेर-ढेर
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