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'राजभोग और राज - लक्ष्मी क्या तुम्हारी है ? जानो श्रेणिक, जानो अभिजात-पुत्रो, तुम जिस सम्पत्ति पर अधिकार किये हो, वह चोरी और बलाकार की है । पराई वस्तु का स्वामित्व कब तक भोगोगे ? जो इस क्षण अपना लग रहा है, वह अगले ही क्षण पराया हो जाता है । चीजें बदल जाती हैं, निगाहें बदल जाती हैं । सौन्दर्य और यौवन ढल जाते हैं । साम्राज्य स्मशान हो जाते हैं । सत्ताएँ उलट-पलट जाती हैं ।
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'भोग ? स्वामित्व ? कौन, किसका कर सकता है ? संचेतन, संचेतन, संचेतन । सावधान् गौतम, सावधान् राजवंशियो, एक क्षण को भी प्रमाद न करो । जागो, जियो और जानो । जी कर जानो, जान कर अवस्थाओं की इस बादल-खेला में, त्रिकाली ध्रुव रह कर, मगन रहो ।
जियो | बदलती
सुख -समाधि में
'वही अमरत्व है, अन्य सब मर्त्य है, मृत्यु है, गौतम । ऐसा अर्हत् जानते हैं और कहते हैं । आत्मवान् भवेतु सर्वम् । आप्तकाम भवेतु सर्वम् ।'
• और निमिष मात्र में वाणी की वह अनाहत धारा, एक विराट् ओंकार ध्वनि में लीन हो गयी । और वह ओंकार ध्वनि, अनायास चिदाकाश में मौन हो गयी ।
भगवान पलक मारते में गन्धकुटी की सीढ़ियाँ उतरते दिखायी पड़े। और सारा ही राज-परिवार आँसुओं की महाभाव धारा में विसर्जित हो गया । और जयध्वनि गुंजायमान हो उठी :
सम्राटों के सम्राट श्री भगवान जयवन्त हों ! अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड नायक महावीर जयवन्त हों ! और श्रेणिक को सहज ही प्रबोधन प्राप्त हुआ :
....
मुझ में अपना रूप
वही तो मैं हूँ ।
उन भगवान ने मुझे अपने संग एकतान कर लिया । दिखा दिया। उनसे भिन्न मैं अन्य कहाँ रह गया ? जो वे हैं, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड - नायक, सर्वसत्ताधीश उन परम पिता का आत्मज- मैं। मैं नहीं, केवल वे । तत्-त्वम् असि ।'
और सम्राट सुषुम्ना में सुखलीन हो गया ।
और चलना ने खुमारी में डूबे सम्राट के कन्धे पर हाथ रख दिया । और श्रेणिक चुपचाप महादेवी का अनुसरण करने लगा ।
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