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'समस्त लोक सुने । श्राविका-संघ की अधीश्वरी होंगी, सम्राज्ञी चेलना । श्रावक-संघ का नेतृत्व करेंगे, सम्राट श्रेणिक भम्भासार । श्रेणिक की जिज्ञासा अन्तहीन है। उसकी पृच्छा सर्वभेदी है । उसकी मुमुक्षा भोगाग्नियों से प्रतप्त है। ___ 'इसी से भगवद्पाद गौतम के बाद आर्य श्रेणिक ही, लोक में शास्ता के सब से बड़े श्रोता और प्रश्नकर्ता हैं । यह श्रेणिक साठ हजार प्रश्न पूछेगा । और इसे मिलने वाले उत्तर इतिहास की नाड़ियों में व्याप जायेंगे। जन-जन, कणकण की शिराओं में वे संचरित होंगे। कलिकाल के दीर्घ प्रसार में, वे अनेक शलाका-पुरुषों और ज्योतिर्धरों द्वारा नाना भाविनी वाणी में उच्चरित होंगे। ऐसा मैं जानता और कहता हूँ, गौतम ।'
भगवान चुप हो गये। एक विराट् निस्तब्धता व्याप गई! . . · लगा कि भगवान उठने ही वाले हैं। कि तभी सुनायी पड़ा :
'आयुष्यमान अभय राजकुमार, मेघकुमार, वारिषेण, हल्ल-विहल्ल । मगधेश्वर की अनेक महारानियो, राजकुमारियो। तुमको देख रहा हूँ, जैसे सब को देख रहा हूँ। आसन्न भव्यात्माओं का एक पूरा परिवार देख रहा हूँ। देवानुप्रियो, तुम सब कृतकाम होओ।'
'हमारे लिये धर्म कहें, भगवन् । मार्ग कहें, भन्ते।'
'धर्म श्रवण करो, और उसे सीधे कर्म में श्रवित करो। वस्तु-स्वभाव के अनुसार ही जियो। वही एकमेव धर्म है, वही एकमेव आचार है। जीव मात्र को निर्बाध जीने दो, स्वयं निर्बाध जियो। यही स्वभाव है, यही अहिंसा है। वस्तु जैसी है, वैसी यथार्थ जानो, वही कहो, वही जियो, यही स्वभाव है, यही सत्य है। जो सर्व का है, उसे चुरा कर उस पर अधिकार न जमाओ, यही स्वभाव है, यही अचौर्य है। ममकार की मूर्छा से ऊपर रहो, यही अपरिग्रह है, यही स्वभाव है। रमण पर में नहीं, अपने में करो। यही स्वभाव है, यही ब्रह्मचर्य है। इन पाँच रूपों में ही तुम विश्व से योग करते हो। इसी से यह पंच-आयाम धर्म कहा गया।'
'जो लोक में कर्म करते हए, इन पंच धर्मों में विचरते हैं, वे अणुव्रती हैं। जो बाह्य कर्म से संन्यस्त हो कर प्रतिपल वस्तु-स्वभाव और आत्म-स्वभाव में ही विचरते हैं, वे महाव्रती हैं। यह आरोपित विधान नहीं, वस्तु-सत्ता से निर्गत स्वाभाविक आचार-मार्ग है। यह पालने की चीज़ नहीं, स्वभाव में सहज विचरण करना है। इसे जो देखता है, वह देखता है। इसे जो जानता है, वह जानता है। ऐसा मैं कहता हूँ, हे राजवंशियो! . . .
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