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' और जानो श्रेणिक, जब तुम नरक की अग्नियों में चलोगे, तब वह सर्वार्थ सिद्धि के अनुत्तर विमान में उच्च देवात्मा होगी । वह लिंगातीत अर्द्धनारीश्वरी होगी । तुम्हारी दुःसह नरक यात्रा में भी वह तुम्हारे पीछे सदा सुरक्षा का कवच हो कर रहेगी । वह तुम्हारे उन क्रन्दन भरे अन्धकारों में समत्व की रागिनी होकर बजती रहेगो । और पद्मनाभ तीर्थंकर के रूप में तुम्हें लोक-चूड़ा पर बैठा कर, वह अन्तर्धान हो जाएगी ।'
'सदा के लिए खो जाएगो, अदृष्ट हो जाएगी ?'
'कैवल्य - सूर्य में कुछ भी खोता नहीं, कुछ भी अदृष्ट नहीं होता । सब सुलभ हो जाता है, सब हथेली की रेखावत् आँखों आगे दृष्ट और प्रकट हो उठता है । जो देखता हूँ, जो जानता हूँ, वही कह रहा हूँ, श्रेणिक ।'
'और फिर चेलना भी मोक्ष-लाभ कर जाएगी ? तो उसके बाद ?' / भगवान एक वत्सल चितवन से श्रेणिक को देख उठे ।
!
'निरा बालक है, श्रेणिकराज तू उत्कृष्ट सम्यक् दृष्टि का मोह भी कितनी दूर तक जाता है ! फिर भी वह बन्धक नहीं, मोक्षक है । अपने इस बालक स्वभाव से ही तू चेलना को पा गया, उत्तम सम्यक्त्व रत्न पा गया । तेरी पृच्छा और जिज्ञासा का अन्त नहीं | तेरे मोह की मानुषोत्तर तीव्रता ही, तेरी मुक्ति का द्वार बन गयो, श्रेणिक । विचित्र है सत्ता का यह खेल, अगम्य आत्मा के रहस्य । तू पूछ और प्रज्ञायित हो । तू जान और आत्मस्थ हो ।'
'चेलना के मोक्ष-लाभ के बाद ? '
'उसके बाद, कोई कालक्रम नहीं । पहले और बाद नहीं । पद्मनाभ तीर्थंकर स्वयम् जानेंगे और तुझे साक्षात् करायेंगे, कि तब तू कहाँ होगा, चेलना कहाँ होगी । मुक्त से मुक्त के मिलन के रहस्य को कौन कह सकता है । वहाँ तू वह हो जाता है, वह तु हो जाता है ।'
'मैं पूर्ण निःशंक हो गया, भगवन् । मैं पूर्ण निश्चित हो गया । मैं पूर्ण आश्वस्त हो गया । मैं पूर्ण निर्भय हो गया, भन्ते ? मेरे चरम प्रश्न का परम उत्तर मिल गया !
चेलना उन्मनी समाधि में निमज्जित है । वह प्रभु की कैवल्य ज्योति के साथ मानो तदाकार हो गयी है ।
'बाहर आओ, चेलना । समाधि में बंद न रहोगी, उसके समाधान को लोकजीवन में संचारित करोगी । महावीर की मौसियाँ, जगन्माता होकर चलने को ही इस पृथ्वी पर जन्मी हैं
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