________________
१४९
अवकाश देती हैं। वे अव्याबाध एक-दूसरे के पार होती चली जाती हैं। और एक दिन लौ के भीतर लौ लीन हो जाती है । एकल और युगल से परे उस परम मिलन में जियो, राजन् ।'
चेलना की मुंदी आँखों से अविरल आँसू बह रहे हैं। जैसे हिम्राद्रि की शिखर-गुहा से गंगा फूट पड़ी है। और श्रेणिक ल्हादिनी चेलना की उस उज्ज्वल धारा में मुक्त तैर रहा है। क्षण भर को वियोग, व्यथा, जरा, मृत्यु का सर्वत्र तिरोभाव हो गया। जीवों ने मुक्त मिलन के निर्बाध सुख को अनुभव किया।
'भगवन्, चेलना को जान कर भी न जान सका। पा कर भी पूरी न पा सका। क्या कारण है, भन्ते ?'
'क्योंकि पूरी पाये बिना तुम्हें चैन न था। जो पूर्ण प्रिया को पाने की अभीप्सा रखता है, उसे वियोग और व्यथा की शैया पर ही सदा सोना होता है। देह की सीमा में मिलन नहीं। देह के भोग में नित्यत्व नहीं । तू अविरल मैथुन चाहता है, तू नित्य भोग चाहता है, राजन् । तू पूर्ण और आप्त नारीभोग चाहता है। वह देह-राज्य की सीमा में सम्भव नहीं। वह आत्म-राज्य की भूमा में ही सम्भव है। जहाँ तेरी काम्या ही तेरी आत्मा हो जाती है। जहाँ तेरी आत्मा ही, तेरी एकमेव काम्या हो जाती है। जो प्रिया बाहर है, वह पराधीन सत्ता है। और पराधीनता में सुख कहाँ, मिलन कहाँ, निश्चिति कहाँ । · · · तेरी चेलना तेरे भीतर बैठी है, वह बाहर कहीं नहीं है, राजन् ।'
'प्रभु का ऐसा अनुगृह हो, कि उसे बाहर न खोजूं, भीतर ही पा लूं।'
'तेरा सम्यक्त्व ही तुझ पर वह अनुगृह करेगा । वह तुझसे तेरा अनचाहा भी करवा लेगा। तेरो अब कोई चाह नहीं हो सकती । तेरा विधाता है, अब केवल तेरा सम्यक्त्व । वह जो स्वरूप दिखायेगा, वही तू देखेगा । वह जो जनायेगा, वही तू जानेगा। वह जो देगा, वही तेरा परम भोग्य होगा । भोग, और जान ले अपनी चाह के चरम छोरों को। तब चाह मात्र समाप्त हो जायेगी । और बिन चाहे ही, चिरकाल का सारा मनचाहा तुझे मिल जायेगा। निर्विकल्प, निर्विचार हो कर जी । निर्द्वन्द्व और तन्मय हो कर जी । तो हर अनुभव के छोर पर अपने को ध्रुव, अविचल खड़ा पायेगा । फिर भय कैसा, श्रेणिक ?'
_'अर्हत् की अशोक-छाया में, निर्भय हुआ, नाथ ! और प्रभु, चेलना का भविष्य ?'
_ 'उत्कृष्ट क्षायिक सम्यक्त्व ले कर ही जन्मी है, चेलना । वह जन्म जात योगिनी है। तू धन्य है, कि तू उसे सहयोगिनी के रूप में पा गया। आत्मसह वरी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org