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'आपके होते, भगवन्, मेरा भविष्य, मेरा अन्त इतना भयंकर ?'
'कर्म के परम नियम - विधान को अर्हन्त भी नहीं काट सकते । अपने कर्म - विपाक को महावीर ने भी चुपचाप सहन किया है। उसकी तपस्या के साढ़े बारह वर्ष इसके साक्षी हैं। एक ही पुरुषार्थ तेरे हाथ है । संसार का दुश्चक्र काट कर तू मुक्त हो सकता है । अपने बन्ध और मोक्ष का स्वामी, तू चाहे तो स्वयं हो सकता है ।'
'पर कोई संकल्प, कोई व्रत, कोई चारित्र्य मेरे वश का नहीं, प्रभु । तुम्हारी तरह तप और संयम मैं नहीं कर सकता । तो फिर मेरा क्या होगा ? '
'तुझ में उत्तम सम्यक्त्व की दृष्टि खुल गयी है । इसी से तू जो करेगा, उसका सम्यक् ज्ञान तुझे होता रहेगा । और उसी के बल तू भव का तमोसागर तर जायेगा ।'
'निरन्तर पाप करते हुए भी ?'
• और निरन्तर पाप का
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जाएगा ।'
फल भोगते हुए भी ! निश्चय ही तू तर
'अबूझ है यह रहस्य, भन्ते !
'व्रती तू नहीं हो सकता । व्रत से मिलता है स्वर्ग । उस सुवर्ण की साँकल अब तू नहीं बँधेगा । तू नरकाग्नि में नहा कर सीधा मुक्ति-सुन्दरी की बाहुओं में रमण करेगा
'नरक ? मैं आपके होते नरक जाऊँगा, त्रिलोकीनाथ ?'
'अपना विधाता तू आप है । अपना स्वर्ग, अपना नरक, अपना मोक्ष तु आप है । कोई त्रिलोकीनाथ उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता ।'
'मैं नरक क्यों जाऊँगा, भन्ते आर्य ?'
'अपने अहम् से पूछ | तपस्वी के रक्षक सर्प देवता को कुचल कर मार देने वाली अपनी एड़ी के फौलाद से पूछ । और फिर यशोधर मुनि के गले में डाले हुए उस मृत सर्प से पूछ । जगज्जयी भम्भासार के हिंसक युद्धों, षडयंत्रों, विजय के दुर्मत्त अभिमानों से पूछ ? और कोई नहीं, तू ही निरन्तर अपना घात करता चला गया है । तू ही अपना हत्यारा है । तेरे सिवाय तुझे और कौन बचा सकता है ? '
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'मैं कुछ नहीं कर सकता, प्रभु मैं केवल देखने, जानने, भोगने को अभिशप्त हूँ । मेरे त्राता हैं केवल महावीर । वे मारें या तारें, मैं समर्पित हूँ । मैं नहीं रहा, केवल तुम हो, मेरे वल्लभ ! '
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