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तप को वे नमित हुए । अनेक प्रकार क्षमा याचना कर उसे आदर-पूर्वक पारण का निमंत्रण दे गये। .. · मासक्षपण पूरा होने पर तापस को राजा की प्रार्थना का स्मरण हो आया। वह शान्त भाव से राजभवन के द्वार पर पारणगोचरी को आया। पर राजा उस दिन अस्वस्थ होने से राजद्वार बन्द दिखाई पड़ा। भिक्षुक अनपहचाना, अवहेलित लौट आया। उसने रंच भी रोष न किया और फिर एक और मास-क्षपण धारण कर उष्ट्रिका-तप में अहर्निश तपने लगा।
___ 'राजा को किसी सूत्र से पता चल गया, कि महातपस्वी सेनक उसके द्वार से अभुक्त लौट गया था। वह दौड़ा आया और अनेक विध क्षमा-याचना कर फिर अगले पारण का आमंत्रण दे गया । सुमंगल पारण-दिन को उँगलियों पर गिनता प्रतीक्षा करने लगा। .. लेकिन ठीक वह तिथि आने पर फिर राजा अस्वस्थ हो गया। सेनक ने फिर द्वार बन्द पाया। वह फिर भूखा ही लौट कर, और भी कठोर संकल्प से उष्ट्रिका तपने लगा। राजा फिर उसी प्रकार अनुताप-विव्हल हो सेनक के निकट नम्रीभूत और क्षमाप्रार्थी हुआ। फिर उसने मास-क्षपण के अगले पारण का आमंत्रण दिया।
'तीसरा मास-क्षपण पूर्ण होने पर फिर सेनक मुनि राजद्वार पर भिक्षार्थ आये। इस बार फिर राजा व्याधिग्रस्त था, और राजभवन के द्वार वज्र-कपाट की तरह अचल जड़े दीखे । तापस एक दुर्द्धर्ष संकल्प-बल से जड़ित द्वार को निनिमेष तकता रहा। · · कि अचानक द्वार खुला और द्वारपाल बाहर आया । सेनक को देख उसे बहुत क्रोध आया। निश्चय ही इस तापस के आगमन से ही महाराज बारम्बार रुग्ण हो जाते हैं । उसने रक्षकों को चुपचाप आज्ञा दी कि वे उस ऊँट-तपस्वी को सर्प की तरह राजांगन से बाहर कर दें, और फिर कभी उस अमंगली की छाया राजद्वार पर न पड़ने दें।... ___'दुर्दाम तपस्वी की तपाग्नि दारुण क्रोध में फूटप डी। उसने निदान किया कि : मैं अपने तपोबल से इस राजा का वध करने के लिए उत्पन्न होऊँ !'
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