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. . • और श्रेणिक को लगा कि कोई अत्यन्त लोच भरी देहयष्टि, अपनी बाँहों पर उसे उठाये, पार-पारान्तर को भेदे जा रही है। · · · और अचानक जैसे एक ठोस तट पर जहाज़ का लंगर पड़ गया। और श्रेणिक ने अपने पोतगवाक्ष से सामने देखा :
'.. यह भरत क्षेत्र का वसन्तपुर नगर है। यहाँ के राजा जितशत्रु और रानी अमरसुन्दरी का पुत्र सुमंगल सामने खड़ा है। रूप में कन्दर्प और कलाओं का चन्द्रमा । मंत्रीपुत्र सेनक उसका परम मित्र है। उल्लू जैसी चपटी नाक, मार्जार जैसी पिंगल आँखें, ऊँट-सी लम्बी गर्दन, चूहे जैसे कान वाला सेनक कुरूपता का अवतार है। लोक में वह सबके हास-परिहास का खिलौना है। राजपुत्र सुमंगल के लिये भी वह मन बहलाव का उत्तम साधन है। सेनक के सामने आते ही, राजपुत्र उसके विकृत रूप पर व्यंगविद्रूप की झड़ियाँ बरसाता है। सेनक तिलमिला कर रह जाता है।
'रात-दिन के इस अपमान से पीड़ित हो कर सेनक का चित्त संसार से विरक्त हो गया। उन्मत्त की तरह हृदय-शून्य हो कर वह नगर से निकल पड़ा। गुंजान अटवी में घूमते भटकते, उसे एक कुलपति तापस मिल गया। उससे उसने उष्ट्रिका व्रत ग्रहण कर लिया। और ऊँट की तरह सूर्य की ओर गर्दन उठा कर, वह तीव्र तप से अपनी आत्मा का दमन और पीड़न करने लगा। निरन्तर अपनी विडम्बना और कदर्थना करता हुआ, सेनक वनचारी तापस का जीवन बिताने लगा।
'एकदा अचानक वह अटन करता हुआ वसन्तपुर के उपान्त भाग में आ पहँचा। वहीं चर्या करने लगा। मुद्दत बाद तापस मंत्रीपुत्र की वापसी से लोग हर्षित हुए। उसका दारुण उष्ट्रिका तप देख वे उसकी पूजा करने लगे। उसके इस कठोर वैराग्य का कारण पूछने पर उसने बताया कि : सुमंगल कुमार के निरन्तर हास-व्यंग से ग्लान हो कर ही उसने संसार त्याग दिया था। राज-पुत्र के परिहास ने उसे तपोबल प्राप्त करा दिया। वह उनका कृतज्ञ है।
.. सुमंगल अब वसन्तपुर के राजा थे। सेनक तापस की विनम्र वार्ता सुन, वे उसके दर्शन को आये। उसके
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