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फिर एक अखंड शान्ति व्याप गयी। सारे जीवात्मा उसमें गहरे सुख से आप्लावित हुए। अचानक श्रेणिक ने पूछा :
'और मेरा भविष्य, प्रभु ?'
'पहले अपने भूतकाल को जान, तो भविष्य भी जानेगा, सौम्य । काल की अखंड धारा में अपने समग्र का बोध प्राप्त कर । अनेक कालों में तू अनेक रूप जन्मा, खेला। आगे भी खेलेगा । इन सारे व्यतीतमान जन्मों और रूपों में, तू कौन, यह जान श्रेणिक । तो भविष्य ही नहीं, जन्मान्तर जानेगा। पिछला भी, अगला भी।'
'वह कैसे जानूं, स्वामिन् ? वैसी सामर्थ्य कहाँ ?'
'तू त्रिकाली ध्रुव सत्ता है। जन्मों और जीवनों की सारी गुजरती अवस्थाओं में, तू तो सदा वही है, एक वही । वही न हो, तो विविध का यह ज्ञान कौन कर रहा है ? क्या तू कभी था, और अब नहीं है ? और आगे नहीं होगा?'
'वह तो असह्य है, भन्ते । मैं वही एक न होऊँ, तो प्रश्न ही आगे नहीं जाता।'
'तु उत्तम भव्यात्मा है, श्रेणिकराज ।'
‘अपने विषम वर्तमान को देखता हूँ, तो जानने को आकुल हूँ, कि मेरी यह स्थिति क्यों है ? भव्यात्मा हो कर मैं इतना विमूढ़ क्यों?'
'वह तू नहीं, केवल तेरी एक भंगुर पर्याय, एक अवस्था। जो आई है, तो बीत जायेगी। जो आता नहीं, वह जाता भी नहीं। वह बीतता नहीं। फिर जो सदा वही रहता है, वही तू है, राजन् । तू विमूढ़ नहीं, विज्ञाता है, अभी और यहाँ। जो विमूढ़ है, वह केवल एकः वीतमान अवस्था। ऐसा मैं देखता हूँ, और कहता हूँ।'
श्रेणिक के भीतर जैसे रोशनी के कई कमरे पार होते चले गये।... लेकिन फिर एक अंधेरी खोह सामने आ गयी। राह रुंध गयी। इसके पार वहाँ मैं कौन हूँ, कौन था?
'अपने पूर्व जन्म को जान, श्रेणिकः । तभी ग्रंथिमोचन होगा।' ‘कैसे, कैसे जानूं, हे केवलिन् ।'
'जा, अपने भीतर जा। भीतर के समुद्र की यात्रा कर । भीतर के अन्तरिक्षों को पार कर। जा, जा, जा, चला जा, अपने को भूल कर चला जा, अपने पारान्तर में।'...
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