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पाना चाहा। और उसे लगा कि कोई आकाश बन कर उस पर छाया है, उसके ऊपर वह हो तो कैसे हो । आकाश को कहाँ से पकड़ा जाये, उसे कैसे दबाया या झुकाया जाए ? श्रेणिक निरुपाय वेदना से विक्षिप्त हो उठा। कि अचानक ही सुनाई पड़ा :
__'केवल भूताकाश को देख रहा है,श्रेणिक ? अपने भीतर के चिदाकाश को देख । वहाँ ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, भीतर-बाहर कुछ नहीं है । वहाँ केवल तू है, आयामहीन तू । वहाँ मैं नहीं, केवल तू है, मुझ-निरपेक्ष तू । उस सत्ता का तू एकमेव और शाश्वत स्वामी है। वहाँ तू जय और पराजय से परे का स्वायत्त सम्राट है, श्रेणिक ।'
'देख रहा हूँ, केवल तुम्हें, भन्ते प्रभु । और अपनी सत्ता रखना कठिन हो गया है।'
'शास्ता तेरी सत्ता छीनने नहीं आए। वे तुझे सर्वसत्ताधीश बनाने आए हैं । हर अस्तित्व को जिनेश्वरों ने एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में पहचाना है। यहाँ कोई किसी के अधीन नहीं । यहाँ किसी पर किसी का कोई आधिपत्य नहीं।'
'लेकिन देख रहा हूँ सामने एक प्रभुता, जिसके आगे इतिहास की तमाम प्रभुताएँ पराजित खड़ी हैं । लोक की समस्त सत्ताएँ यहाँ छोटी पड़ गई हैं। तो मैं कौन ?'
___तु केवल स्वयम् आप । तू छोटा भी नहीं, बड़ा भी नहीं। किसी से बड़ा हो कर रहना चाहेगा, तो किसी से छोटा होना ही पड़ेगा । तू किसी से बड़ा भी नहीं, किसी से छोटा भी नहीं । तू स्वयम्-पर्याप्त है। अपने होने के लिए तू किसी अन्य पर निर्भर नहीं । ऐसा मैं जानता और कहता हूँ, श्रेणिक।'
'लेकिन महावीर के सामने होते, श्रेणिक नहीं ठहर पा रहा, भन्ते । मेरी पीड़ा को कौन समझेगा ?'
'मैं हूँ तुम्हारी पीड़ा, श्रेणिक । मेरी ओर देखो । देखो, देखो, देखो, श्रेणिक । देखो यहाँ, इस गन्धकुटी की मूर्धा पर। देखो मेरी आँखों में । · ·और पहचानो कि तुम महावीर हो। और मैं श्रेणिक हूँ। इस समयातीत मुहूर्त में । तुम अर्हत् के इस रक्त-कमलासन पर अधर में उत्तान बिराजमान हो । और मैं श्रेणिक हूँ। तुम्हारे पादप्रान्त में उपस्थित । · · ·पश्यः पश्यः, बुज्झह बुज्झह, जाणह जाणह श्रेणिक ।'
और श्रेणिक ने ठीक यही दृश्य देखा। श्रेणिक महावीर हो गया है, महावीर श्रेणिक हो गया है । अब वह जीते तो किसे जीते, मारे तो किसे
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