SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यौवन उसके पदनखों पर लौट-लौट जाने को पागल हो उठा है। कौन है, कौन है वह ऐसा पृथ्वी-पुत्र, जिसने तुम्हारी शची को तुमसे छीन लिया है, शक्रेन्द्र ?' • 'इन्द्र को यह सुनते-सुनते एक गहरे आल्हाद की मर्जी आ गई। वह समाधि लीन-सा हो कर अपने अन्तरतम में झाँक रहा है । • "हठात्, उसके अवधिज्ञान का चरम वातायन एक विद्युत्-टंकार के साथ खुल पड़ा । • जो दृश्य उसे दिखाई पड़ा, उसे देख कर उसका आनन्द उसकी दिव्य देह के तटबन्ध तोड़ने लगा। वह अमित उल्लास से किलकार उठा : - 'स्वर्गेश्वरी, देखो, देखो सुदूर पृथ्वी पर खड़ा वह आकाश-पुरुष । विराटज्योति का वह हिमाचल । जो इस क्षण चलायमान होने को उद्यत है । भरतक्षेत्र के मगध देश में, ऋजुबालिका नदी के तट पर, महाश्रमण महावीर को कैवल्य-लाभ हो गया है। अनुत्तर सर्वज्ञ महावीर की उसी कैवल्य-प्रभा से इस क्षण अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड जगमगा उठे हैं। उन्हीं त्रिलोकीनाथ के प्रभामण्डल से तीनों लोक इस समय भास्वर हो उठे हैं। उसी ख़ामोश विस्फोट से हमारे स्वर्गों में रोशनी और रूपांतर का एक विप्लव-सा घटित हुआ है। · · · मेरी आत्मेश्वरी ऐन्द्रिला, त्रैलोक्येश्वर प्रभु की उस कैवल्य-ज्योति में आज हमारा नया जन्म हुआ है । उन्हीं महाविष्णु के वक्ष के श्रीवत्स चिह्न में हमारा आलिंगन अटूट हो सकता है । वहीं, केवलं वहीं सम्भव है, निरन्तर भोग, अनाहत रमण ।' 'उन्हीं महाकालेश्वर भगवान की वक्ष-गुहा में मैं तुम्हारे संग उत्संगित हूँ इस क्षण, ओ मेरे इन्द्रेश्वर ।' 'देखो, शची , देखो हमारे सोलहों स्वर्ग, माहेन्द्रों और अहमिन्द्रों की सर्वार्थसिद्धियाँ अपने-अपने विमानों पर चढ़ कर, तीर्थंकर महावीर का कैवल्याभिषेक करने को पृथ्वी की ओर धावमान हैं । गतिमान देव-सृष्टियों की इन्द्रधनुषी रत्न-प्रभाओं से, सारा आकाश एक संचारिणी चित्रमाया-सा भास्वर हो उठा है । चलो शची, चलो, हम भी उन सर्वदर्शी प्रभु के श्रीचरणों की पूजा को पृथ्वी पर चलें ।चलो, हम उनके समवसरण की रचना में अपने समस्त स्वर्गों के वैभव को चुका दें, ताकि शायद हमारे नश्वर सुखों में, उनके अनश्वर और निरन्तर सुख का अमृत उतर आये ।' ___'चलो नाथ, चलो, अब एक क्षण को भी यहाँ विराम नहीं। मुझे ही बना लो अपना पुजापा । मेरे ही भीतर, अपने स्वर्गों के सारभूत ऐश्वर्य को उन विश्वेश्वर के चरणों में चढ़ा दो। उन श्रीचरणो में विजित हुए बिना, अब तुम्हारा चरम आलिंगन पाना सम्भव नहीं। · · · तुम, जो इस क्षण मेरी छुवन से बाहर हो गये हो । तुम, जो इस अन्तर्-मुहूर्त में मेरी पकड़ से छिटक गये हो । वह पकड़ सर्वदर्शी प्रभु की नेत्र-प्रभा में ही फिर से पा सकती हूँ ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy