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नारकियों के प्राण भी इस क्षण अनायास सुख से पुलकित हो उठे हैं । उनकी शूल शैयाओं में एकाएक यह कैसी फूलों की छुवन-सी भर आयी है। · · · मुझे स्पष्ट आभास हो रहा है, कि इस मुहूर्त में तीनों लोकों के प्राणिमात्र की आत्मा में सुख की अनुभूति हिलोरे ले रही है । कर्म-सत्ता मानों इस क्षण थम गई है । उसके रजोपाश जैसे ढीले पड़ गये हैं । जीव मात्र क्षण भर को अपने-अपने स्वभावगत सुख से विभोर हो गये हैं । दुःख की विभाव-रात्रि इस समय ब्रह्माण्ड पर से तिरोहित हो गई है । तत्त्व इस क्षण अपने शुद्ध परिणमन में आत्म-विलास कर रहा है । . . . '
'आश्चर्य, आश्चर्य, आनन्द, आनन्द, सौधर्म-पति । देखो, देखो, मैं और की और हुई जा रही हूँ। मेरे सारे पुरातन सौन्दर्य और शृंगार झड़ रहे हैं । मैं नग्न से नग्नतर होती जा रही हूँ। मैं अपने ही लावण्य के जल में नहा रही हूँ। मेरे स्वामी, मेरी इस चरम नग्नता को नहीं देखोगे ? मेरे सौन्दर्य के इस सलिल में मेरे साथ जलकेलि नहीं करोगे?' ___देखो शची, देखो, भीतर की ओर देखो, तुम्हारे नग्न लावण्य की अन्तिम झील में मैं तुम्हारे साथ तैर रहा हूँ । तुम मेरे आरपार तैर रही हो, मैं तुम्हारे आरपार तैर रहा हूँ। हमारे शरीर कितने पारदर्शक और पारगम्य हो गये हैं। कहीं कोई बाधा ही नहीं रही हमारे बीच । जैसे अप्रतिरुद्ध और चरम है हमारा यह रमण ।'
'सुनें, स्वामी सुनें, हवा में ये कैसी वीणाएँ अचानक बज उठी हैं ? विराटों में ये कैसे वाजिब अकस्मात् गूंज रहे हैं ? सारे स्वर्गों से उत्सव-वाद्यों की ध्वनियाँ उठ रही हैं।' ___'सुनो शची, सुनो, कल्पवासी देवों के विमानों में आपोआप अविराम घंटनाद हो रहा है। ज्योतिषी देवों का लोक आकस्मिक सिंहनाद से थर्रा रहा है । व्यन्तरों के भवनों में स्वयमेव ही मेघ-गर्जन की तरह नक्काड़े बज रहे हैं। भवनवासी देवों की अटारियों पर बिन फूंके ही, तुमुल शंख-ध्वनियाँ हो रही है। सारे ब्रह्माण्ड में जैसे लास्य का मृदंग बज रहा है । . . किस महाशक्ति का यह जादुई खेल है, मेरी हृदयेश्वरी ?' ___ 'ओ' . 'ओ' . 'देखो, देखो, मेरे प्रभु, सारे स्वर्गों के कल्प-वृक्षों से दिव्य मन्दार फूलों की झड़ियाँ लग गई हैं । धारासार बरसते हुए ये फूल पृथ्वी की ओर जा रहे हैं । किसका अभिषेक करने के लिये ? कौन है वह पृथा का पुरुषोत्तम ? कौन है वह नारायण ? जिसके श्रीचरणों में सारे स्वर्गों के अमर कहलाते ऐश्वर्य पूजार्घ्य बन कर ढलक रहे हैं ? · . . '
'सच कह रहे हो नाथ, तुम्हारी शची का लावण्य उस अज्ञात सत्ता-पुरुष के चरणों की धूल हो जाने को मचल उठा है । मेरे उरोजों का अक्षय्य कहलाता
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