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हमारे सदोदित सूर्य और चन्द्रमा अस्तप्राय हैं। · · ·ओ शची, देखो, देखो, स्वों का आलोक अभी-अभी डूब जाने की अनी पर है। शची, मुझे थामो, मुझे · ।'
'नाथ, मुझे थामो, मुझे अपने में लीन कर लो ।'
'मैं कौन ? कहाँ है कोई शकेन्द्र ? कोई नहीं, कहीं नहीं। तुम कौन ? कहाँ है कोई शची? कोई नहीं, कहीं नहीं । शची, तुम मेरी कोई नहीं । मैं तुम्हारा कोई नहीं । कोई तीसरी ही सत्ता हमारे अस्तित्वों की निर्णायक है, इस क्षण!'
___एक अफाट निस्तब्धता में दोनों काँपते प्रश्न-चिन्ह मात्र रह गये हैं । एक दूसरे के आमने-सामने।
___ - कि अचानक एक नवोदय के आभास से वे संचेतन हो उठते हैं । मानों कि हठात् किसी ध्रुव ने उन्हें थाम लिया है। उन्हें अस्तित्व दे दिया है ।
_ 'आनन्द, आनन्द, शची । हम फिर अपने में लौट आये। देखो न, एक अपूर्व नवीन आभा से सारे स्वर्ग झलमला उठे हैं । हमारे रत्न-दीपों में नयी ज्योतियाँ उजल उठी हैं । हमारे ज्योतिरांग कल्पवृक्षों के पुरातन फल-फूल झर पड़े। उनमें नाना रंगी रोशनियों के नित-नव्य फल-फूल फूट आये हैं। आपोआप, अनचाहे, जाने कैसी नव-नूतन भोग-सामग्रियाँ उनसे उतर कर हमारे सामने चली आ रही हैं । · अपूर्व है यह घटना।'
'मेरे प्राणेश्वर, पा गई तुम्हें । अपने सर्वस्व को। पा गई सब कुछ, पहली बार । अपूर्व लग रहे हो आज तुम। अपूर्व लग रहे हैं, तुम्हारे सारे स्वर्गों के वैभव । उनमें कोई नया ही परिणमन घटित हो रहा है। · · ऐसे सुख का अनुभव इससे पहले कभी न हुआ ।'
'सच कह रही हो, मेरी ऐन्द्रिला, मेरी आत्मा। यत्परोनास्ति है हमारे अस्थिहीन शरीरों में यह सुखानुभति । ओ शची, मेरे अवधिज्ञान के बहुत दूरगामी वातायन खुल पड़े हैं । लोक के अतलान्तों में प्रकाश की सुरंगें लग गई हैं। विश्व-ब्रह्माण्ड को थामने वाले तीनों वातवलय मानों इन्द्रधनुषों की तरंगित नदियाँ हो गये हैं । सब से अन्तिम तल के उस निगोदिया जीवों के संसार को देखो । वहाँ तो चिरकाल अभेद्य अंधकार का ही साम्राज्य छाया रहता है । और उसमें वे असंख्य एकेन्द्रिय प्राणी बेशुमार मांस-राशियों में बेबस लड़कते रहते हैं। । आज महातमस् के उस लोक में भी उजाले की किरणें फट पड़ी हैं। उन घोर अज्ञानी जीवों के भीतर भी एक नयी चेतना स्फुरित हो उठी है। . . .
'तुम देख रहे हो स्वामी, और मैं केवल अनुभव कर पा रही हूँ। मैं तुम्हारी नारी, तुम्हारी अनुभूति !'
देखो मेरी अर्धांगिनी, देखो, पल्यों, सागरों, करोड़ों वर्षों से नरक के अनिर्वच दुःखों में छटपटाते उन नर-नारियों को । चिरन्तन संत्रास में जी रहे, उन
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