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सौधर्म सभा में गवा । शची ने उसका अनुसरण किया। इन्द्र अपने सिंहासन पर जा बैठा और उसने अपनी सत्ता को महसूस करना चाहा।
• • पर यह क्या, कि उसका सिंहासन हवा में पत्ते की तरह थरथरा रहा है । उसके नीचे की फ़र्श में विप्लवी भूकम्प के हिलोरे आ रहे हैं । विशाल सभाभवन की दीवारें डोलती हुई धराशायी होती जा रही हैं। इन्द्र सिंहासन छोड़ कर शची के सम्मुख आ खड़ा हुआ। पर खड़े रहना भी जैसे इस क्षण मुहाल है । ___'शची, शची, देखो, देखो, स्वर्ग की अजेय सत्ता को फिर पार्थिव की माटी ने चुनौती दी है। स्वर्ग ध्वस्त होकर, ठीक हमारी आँखों के सामने भरभरा कर बिखर रहा है । बोलो, बोलो, हम कहां खड़े रहें, कहाँ जायें, प्राण ?'
'प्रभु, मेरे इन्द्रेश्वर मुझे लो, मझे अपने में समेट लो । बाबो नाथ, बचाओ इस प्रलय से । मैं अब खड़ी नहीं रह सकती ।' __... नहीं, अब मैं तुम्हें अपने आलिंगन में नहीं ले सकता । वह आलिंगन मदा के लिये टूट गया। उसमें अब हम एक-दूसरे को शरण नहीं दे सकते । · वह शरण कहीं और है ।'
'कहाँ है वह शरण, चुप क्यों हो गये, बोलो नाथ !' 'पता नहीं ! लेकिन देखो, देखो, यह सब क्या है . . . ?
'क्या है स्वामी, तुम ऐसे भयभीत क्यों ? सौधर्मपति शक्रेन्द्र, अपार सत्ता और ऐश्वर्य का प्रभु। और इतना भयभीत ?'
'शची, नहीं, मैं कुछ नहीं। मैं निःशेष हो गया । मेरी सत्ता समाप्त हो गयी। यह कोई सारी सत्ताओं की सत्ता है, जो . जो, इस क्षण हमारे ऊपर आरूढ़ हो गई है।'
_ 'कहाँ है वह सत्ताओं की सत्ता ? दिखाओ न, दिखाओ। नहीं, यह तुम्हारी भ्रान्ति है। __अलक्ष्य में कहीं एक प्रलयंकर विस्फोट सुनाई पड़ा। कानों में नहीं, नाड़ियों
'ओह शची, देखो न, सारे स्वर्गों के पटल हिल रहे हैं। तमाम इन्द्रों के सिंहासन डोल रहे हैं। हर स्वर्ग के इन्द्रों और इन्द्राणियों के, देवों और देवांगनाओं के आलिंगन टूट गये हैं । अप्सराओं के लावण्य धूल में मिल रहे हैं । . . . '
... • ‘नाथ, नाथ, यह क्या कह रहे हो ?'
'देखो न शची, हमारी इस इन्द्र सभा के इन्द्रनील झूमर हठात् बझ गये हैं। सारे स्वर्गों की रत्न-प्रभाएँ मन्द पड़ गई हैं । ज्योतिरांग जाति के कल्पवृक्षों की अमन्द विभाएं पतझर के पत्तों की तरह झड़ी जा रही हैं। कालचक्र से परे के
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