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सम्राट के सीने में अकस्मात् एक खामोश विस्फोट हुआ। कोई आदिम चट्टान टूट कर छु-मंतर हो गई। अपने भीतर के उस अथाह रिक्त में वह पृथ्वीपति बेसहारा छूट गया। वह पानी से बिछुड़ी मछली की तरह तड़पने लगा । कि सहसा ही उस शून्य में कोई बहुत ही नम्य द्रव्य उभरने लगा। उसका स्पर्श इतना गहरा और सुखद है, कि उसमें एक विचित्र विसर्जन की अनुभूति होती है । अन्तर-सुख की इस धारा में मन के सारे आसंग और अवरोध जादू की तरह लुप्त हो गए हैं।
राजा इतना आल्हादित हो आया, कि वह आगे बढ़ कर चेलना के दायीं ओर चलने लगा । उन संग चलती दो देहों के बीच की हवा कैसी चन्दनी
और पावन है । श्रेणिक का जी चाहा कि सट कर और अटूट चले चेलना के साथ । · · लेकिन बीच का यह अबकाश ऐसा तरल और सुखद है, कि छुवन उसमें अविरल जारी है ।
'सम्राट की आँखों में औचक ही ऐसा नशा छा गया है, जिसके आगे सारी पार्थिव मदिराएं फीकी पड़ गई हैं । और उसी आनन्द के नशे में झूमते हुए सम्राट ने देखा, कि उसके चारों ओर अनन्त और अनाहत ऐश्वर्य का राज्य फैला है। और अपनी माहेश्वरी के साथ वह इसके बीच निर्द्वन्द्व विहार कर रहा है। पता ही न चला कि कब कितने परकोट और रत्न-तोरण पार हो गए। कितने मानस्तम्भ और धर्मचक्र उनके लिए, एक के बाद एक द्वारों की तरह खुलते चले गए।
श्रीमंडप में प्रवेश करते हुए, श्रेणिक को लगा कि वह नम्रीभूत हो आया है। उसका अंग-अंग फलभार से झुके वृक्ष की तरह लचीला हो गया है । और चेलना कल्प-लता की तरह उस पर चारों ओर से छा गई है।
गन्धकुटी के श्रीपाद में पहुँचते ही, दोनों अचानक थम गए। शीर्ष के कमलासन पर उनकी निगाहें उठीं, तो अपलक निहारती रह गईं । वे दोनों नयन मात्र रह गए। चेलना आँसुओं में पिघल चली, और श्रेणिक उस भींगी ऊष्मा में आत्महारा हो गया।
· · ·और हठात् चेलना पीछे छूट गयी। और राजा ने उस रक्त कमलासन पर करोड़ों कामदेवों को लज्जित कर देने वाला सौन्दर्य देखा। एक ऐसा मुखमण्डल, जो लावण्य का समुद्र है। और त्रिकाल की सारी सुन्दरियाँ और कामिनियाँ जिसकी तरंगें मात्र हैं। वहाँ एक साथ हज़ारों चेलनाएं हैं, हज़ारों महारानियाँ हैं, हजारों वल्लभाएँ हैं। उस कामेश्वर अर्हत की आँखें अनिमेष चेलना और श्रेणिक को भ्रूमध्य में एकाग्र हो कर देख रही हैं। और प्रभु की पलकों की उन कजरारी कोरों पर उर्वशियाँ विदग्ध अंगड़ाइयों के साथ निछावर हो रही हैं। श्रेणिक का कामाकुल मन, निश्चिन्त और उपशान्त हो गया।
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