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यहाँ बार-बार ऋषित्व से मंडित हुआ है। यह चिरकाल से ही राजर्षियों के विलास और संन्यास की संयुक्त क्रीड़ाभूमि रही है।
द्वापर में वसुवंश के राजा बृहद्रथ ने यहाँ साम्राजी शलाका स्थापित की थी। एक बार वृषभगिरि पर्वत पर, एक महा भयानक जंगली गेंडे ने बृहद्रथ को धर पकड़ा था। राजा ने मल्लयुद्ध में गेंडे को पछाड़ कर उसका काम तमाम कर दिया था। उस गेंडे के पेट और पीठ से बने नक्काड़े आज भी मगध की आयुधशाला में सुरक्षित हैं। आज चतुरंग सैन्य के मोखरे पर वही नक्काड़े वज्रघोष करते हुए विपुलाचल के शिखर को मानो ललकार रहे हैं।
और उक्त वार्हद्रथ वंश में ही द्वापर के शेष में जरासन्ध हुआ। उसने साक्षात् नारायण कृष्ण तक को अपने आतंक से थर्रा कर मगध में सर्वप्रथम एकराट् साम्राज्य की स्थापना की थी। और अभी एक शती पूर्व इस मागधी भूमि पर राजा शिशुनाग ने शैशुनाग वंश की नींव डाली थी। और अपने संकल्प-बल से चक्रवर्तित्व का साका चलाया था। और उसी की पांचवीं पीढ़ी में भंभासार श्रेणिक ने इस भूमि के पीढ़ियों के स्वप्न को अपने अजेय बाहुबल से मूर्तिमान किया है।
मगध की आदि पुरातन राज्य-लक्ष्मी के भेदी ख़जाने आज पहली बार खुले हैं। सदियों से बन्द पड़ी भूगर्भी आयुधशालाओं के ताले आज तोड़े गये हैं। और उनमें अज्ञात काल से संचित शस्त्रों और अस्त्रों की अमूल्य सम्पत्ति ने, जाने कितनी अँधेरी शतियों के बाद दिन का उजाला देखा है। उनमें संग्रहीत शंख, घड़ियाल, दमामे, भेरियाँ, तुरहियाँ, आज उच्च घोषों में बज रही हैं। मानों काल के सारे अन्तरालों को पाट कर, उसे एक धारा में प्रवाहित कर रही हैं।
इससे पूर्व मगध के आदिकालीन ज़मीदोज़ शस्त्रागारों की ओर श्रेणिक का ध्यान कभी न गया था। लेकिन आज उसे यह क्या सूझा, कि एक पूरी साम्राजी परम्परा के अटूट सिलसिले को एक साथ प्रदर्शित करके वह मानो अपने आदिम अधिकार का दावा किया चाहता है। राज-तांत्रिकों ने गिरव्रज के मणिमान नाग का आवाहन कर उससे दैवी नागपाश प्राप्त किया है। वैभार और गृध्रकूट के गन्धर्वो को जगा कर उनसे संग्राम का मारू और जुझारू बाजा आज बड़ी भोर से ही बजवाया जा रहा है।
हजारों चुनिन्दा अश्व-रत्नों पर आरूढ़ अश्वारोहियों ने धरती में से उत्खनित महापुराचीन शस्त्रास्त्रों को धारण किया है। उनके बल्लमों और भालों पर उड़ती रक्त-श्वेत पताकाओं से दिगन्त जैसे रोमांचित हो रहे हैं। और सब से आगे विशाल पदाति सैन्य एक हाथ में जलते खप्पर और दूसरे में
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