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'मैंने मन-ही-मन संकल्प किया: इस रात के बीतने तक, यदि मेरी वेदना दूर हो जायगी, तो कल सवेरे मैं अभिनिष्क्रमण करके अनागारी प्रव्रज्या ग्रहण कर लूंगा ।
'हे देवानुप्रिय इस संकल्प के साथ ही मेरी पीड़ा, उतरते ज्वार की तरह धीरे-धीरे कम होती चली गयी । ब्राह्म मुहूर्त में मैंने अनुभव किया कि मेरी पीड़ा सर्वथा तिरोहित हो गयी है । मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया हूँ । . . . और सूर्य की पहली किरण के साथ ही, अपनी प्रिया और परिजनों के क्रन्दनों को पीठ दे कर, मैं राजमहल से अभिनिष्क्रमण कर गया ।'
क्षण भर को एक अफाट मौन में, सारा वन प्रान्तर विश्रब्ध हो गया। तब श्रेणिकराज की अन्तिम जिज्ञासा मुखर हो उठी :
'फिर कहीं शरण मिली, आर्य ?'
'निर्ग्रथ ज्ञातृपुत्र महावीर के श्री चरणों में जा कर मैं समर्पित हो गया । कैवल्य ज्योति का दर्पण सम्मुख था । उसमें अपना असली चेहरा पहली बार देखा । मैंने अपने को पहचान लिया । मुझे शरण मिल गई ।'
'निग्रंथ ज्ञातृपुत्र के चरणों में ?' 'नहीं, अपने भीतर । अपने स्वरूप में ।
'फिर क्या हुआ, योगिन् ? '
'मैं अन्तिम रूप से सनाथ हो गया । मैं स्वयंनाथ हो गया । और अपन नाथ हो कर, मैं सर्व चराचर का नाथ हो गया ।'
‘सो कैसे, भगवन् ?’
'अब निखिल चराचर मेरे भीतर है, और मैं उसके भीतर हूँ । बाहर कुछ भी नहीं रहा । विरह सदा को मिट गया । पूर्ण मिलन हो गया ।'
'मैं प्रतिबुद्ध हुआ, भगवन्, आपकी जय हो ।'
और अब तक मौन खड़ी मगध की राजेश्वरी एकाएक पुकार उठी : 'आर्यावर्त के बाल योगीश्वर जयवन्त हों ! '
और राज-दम्पति एक साथ, योगी के चरणों में साष्टांग प्रणिन में नमित हो गये । जाने कितने क्षणों बाद वे उठे, तो पाया कि योगी वहाँ नहीं थ । चत्यकान की वीथिका में एक अरूप आभा दूर-दूर चली जा रही थी ।
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