SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ के शीतल जल भी मेरी उस दाह को शान्त न कर सके । यही मेरा अनाथत्व था। 'मेरे पिता का अपार वात्सल्य और वैभव भी मुंह ताकता खड़ा रह गया। वह भी मेरा परित्राण न कर सका। यही मेरा अनाथत्व था। ___'माँ की अगाध ममताली गोद से भी उछल कर मैं धरती पर आ गिरता । एकाकी और अनाथ चीखता रहता । सान्त्वना के शब्द फूट नहीं पाते थे । यही मेरा अनाथत्व था। 'एक ही माँ के जने भाइयों और बहनों के प्यार और परिचर्या ने भी हार मान ली। यही मेरा अनाथत्व था। _ 'और मेरी परम सुन्दरी पत्नी थी । वह मुझे परमेश्वर समझती थी। उसकी पति-भक्ति लोक में अनुपम थी। रात और दिन का मान भूल कर वह मुझी में रमी रहती । ऐसा लगता था कि उसकी आत्मा मेरी आत्मा से भिन्न नहीं है । अटूट वह, मेरे अंग-अंग से जुड़ी रहती । वह सच्चे अर्थ में मेरी अर्धांगिनी थी । भोजन, वसन, शयन, सुगन्ध, शृंगार, सभी का परित्याग कर, केवल मझी में उसका प्राण अटका रहता । क्षण भर के लिए भी मेरे माथे को वह अपनी गोद से न उतारती । अपनी किसलय-कोमल बाहुओं से वह हर समय मुझे घेरे रहती । तुहिन से भी तरल और मृदुल अपनी ऊंगलियों के परस से वह मेरा पोर-पोर सहलाती रहती। अपनी भुवनमोहिनी आँखों से हर समय वह मुझे ही एक टक निहारती रहती। अपने मलयानिल जैसे कुन्तलों से वह मुझे छाये रहती। प्रीति के आंसुओं से वह मेरे हृदय को निरन्तर सींचती रहती। ___ 'किन्तु हे पार्थिव, ऐसी परम वल्लभा प्रिया भी मेरी उस पीड़ा की सहभागिनी न हो सकी । उसके भीतर भी मेरी आत्मा को शरण न मिली । · · · तब अन्तिम रूप से मुझे यह प्रतीति हो गयी, कि संसार की बड़ी से बड़ी प्रीति भी मनुष्य को सनाथ नहीं कर सकती । यहाँ की हर वस्तु, यहाँ का हर व्यक्ति अनाथ है, अनालम्ब है । कोई किसी को सहारा नहीं दे सकता । 'एक रात के मध्य प्रहर में, मेरी पीड़ा पराकाष्ठा पर पहुंची । मृत्यु मेरे सामने आ कर खड़ी हो गयी। उस क्षण प्रिया का आखिरी आँसु मेरे सिसकते मोठों पर गिरा, और व्यर्थ हो कर ढुलक गया। · · · मैं अन्तिम रूप से अनाथ हो गया। चरम विरह की अन्धकार रात्रि मेरे भीतर व्याप गयी। 'अन्तर मुहर्त मात्र में अपने भीतर से भी भीतर के भीतर में मैं जाग उठा. . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy