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________________ १२५ वह अपने परम आप्त गुरु के एक-एक अंग-प्रत्यंग को सहलाने और चाँपने लगी। और उसकी नसों में जैसे शीतल गन्धजल की धाराएँ बहने लगीं। राजा अथाह प्रायश्चित्त की आग में हवन होता, गुड़मुड़ी धरती पर ढलक रहा । चेलना ने सुबकते-सिसकते, कम्पित हाथों से सर्प को मुनीश्वर के गले से निकाल कर पास की एक झाड़ी तले सादर लिटा दिया। क्योंकि वह योगी का एक प्रेम-पालित, स्व-नियुक्त सेवक था । अनन्तर चेलना पास ही के एक झरने से निर्मल शीतल जल का कलश भर लायी। फिर अपने केशों के मुदुल छोरों से मुनि के शरीर पर रेंगती तमाम चींटियों को बहुत ही हलके हाथों उतारउतार कर पास की हरियाली में विसर्जित कर दिया । तब अपने आँचल को वनस्पतियों से महकते ताजा जल में भिंगों-भिंगों कर, अपने श्रीगुरु के शरीर को स्पर्शातीत मार्दव से प्रक्षालित कर दिया । अनन्तर अपने विपुल सुगन्धित केशपाश से उस तपस्वी की मलयोज्जवल देह का अंग-लुंछन किया। · · महारानी ने विह्वल रुदन के स्वर में, अपने स्वामी की ओर से अनेक सरह अनुनय, प्रार्थना, क्षमा याचना की। श्रीगुरुनाथ अनुकम्पा से भावित हो मुस्कुरा आये । समता की उस मुस्कान में सारी सृष्टि को अभयका आश्वासन था। सम्राट एक अपार्थिव भय से थरथरा रहा था। उसने भी अनायास एक गहरी आश्वस्ति अनुभव की । फिर बालक की तरह मचल कर उसने जिज्ञासा की : 'श्रेणिक बिम्बिसार के पाप को कहीं क्षमा है, पृथ्वी पर, हे योगिराट् ?' प्रतप्त लू के झकोरों में ध्वनित सुनाई पड़ा : 'विपुलाचल, विपुलाचल, विपुलाचल । परम क्षमा, चरम शरण । वही एक समव-सरण । वहाँ नहीं, तो कहीं नहीं। निर्भय हो जा, राजन् ।' वीतराग योगी का हाथ, उद्बोधन में उठ गया। धीर-गंभीर गति से, हलके फूल की तरह चेलना, आगे-आगे चल रही है । और अनुतापसे विकल, भाराहुत श्रेणिक चुपचाप उसका अनुसरण कर रहा है। उसकी अन्तर्वेदना केवली-गम्य है। अपने में लौटने को ठौर नहीं। और बाहर, केवल विपुलाचल । केवल महावीर । और भीतर के शून्य में यह कौन एक तीसरी सत्ता उभर रही है। . . ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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