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अनन्त शयन हमारी प्रतीक्षा में है
सम्राट बिंबिसार श्रेणिक अपने 'महानील प्रसाद' की सबसे ऊंची छत पर अकेले खड़े हैं ।सई साँझ ही विपुलाचल के शिखर पर पूनम का बड़ा सारा चाँद उग आया है। छत की स्फटिक रेलिंग और नीलमी फ़र्श में चाँदनी झलमला रही है । उद्यान के कामिनी-कुंजों की हल्की-हल्की महक हवा में सपने तेरा रही है ।
रेलिंग पर खड़े सम्राट की निगाह, जहाँ तक जा सकती थी, उससे आगे चली गयी है । उन्हें नहीं पता कि वे कहाँ हैं, क्या खोज रहे हैं, क्या चाहते हैं ।
एकाएक बहुत ही महीन नुपुर-रव से सम्राट का एकांत चौकन्ना हो उठा। वैशाली की विचित्र फुलल-गन्ध ने मगधेश्वर के अज्ञातों में यात्रित मन को सहसा ही टोक दिया।
'स्वामी, मैं ही हूँ, और कोई नहीं · · · ।' 'आओ चेलनी, मगध की महारानी को झिझक कैसी ?' 'सम्राट का एकांत मैंने भंग कर दिया।' 'सम्राज्ञी का उस पर निर्बाध अधिकार है।' 'देखती हूं, बहुत दिनों से उस एकान्त की सहचारिणी नहीं रह गयी हूँ ।'
'चेला, तुम तो अपनी जगह पर हो, शायद मैं ही वहाँ नहीं हूँ । विचित्र लगेगा तुम्हें, नहीं ?
'कहाँ विचर रहे हैं, मेरे देवता?' 'तुम्हारी आँखों के मृग-वन में।' .
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