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अजेय तो कभी न जाना था। माँ ? नहीं, श्रेणिक माँ को नहीं स्वीकारता । और रमणी से बढ़ कर पुरुष के पौरुष की कोई सीमा और नहीं । उसे ऐसी कोई कोमलता स्वीकार्य नहीं, जो उसकी प्रभुता को गला दे, विसर्जित कर दे । मैं मैं, दुर्दान्त बर्बर, आदि पुरुष मैं । निःसंग, नारीहीन, एकाकी । मैं अयोनिज हूँ, आमातृक हैं, अजन्मा हूँ। मैं एक शाश्वत अजेय सत्ता - पुरुष हूँ। और समय के आरपार अस्खलित जारी हूँ ।'
और हठात् सम्राट खड़ा हो गया। उसने चारों ओर हाथ-पैर मार कर, मानो अपने ऊपर आ छायी सारी प्रकृति की रमणीयता को जैसे झंझोड़ कर दूर फेंक दिया । एक लोमहर्षी हुंकार से वह दहाड़ उठा ।
".. मैं मैं मैं, चक्रवर्तियों का चक्रवर्ती, एकमेव पुरुष श्रेणिक भम्भासार हूँ। मैं लोक का आदिम अहेरी हूँ। मैं सौन्दर्य, प्रेम, कोमलता का जन्मजात शिकारी हूँ । मैंने चिरकाल उन्हें भोगा, पर वे मुझे न भोग सके । और अब • आज, वे मेरा आहार किया चाहते हैं ?
'आखेट, आखेट, आखेट ! ओ प्रकृति की अन्तिम क्रूरता, भयानकता, खुल कर मेरे सामने आओ । ओ चम्पारण्य, कहाँ हैं तेरे वे लोक विश्रुत व्याघ्र, अष्टापद और भेड़िये, जिनकी झलक मात्र पा कर बड़े-बड़े शूरमा थर्रा उठते हैं। जिनकी कहानियों से उपद्रवी बच्चों को डराया जाता है। क्या वे मुझसे डर कर भाग गये हैं ? ओ जंगल, देख देख, मैं अभी तेरे पहाड़ों, गुफाओं, खोहों और ख़न्दकों को कोमलता की लाशों से पाट दूंगा ।
'ओ आसमान, मुझे तीर-कमान दो। पहली बार मैं निहत्था और निष्कवच निकल पड़ा हूँ। मैं अब अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों पर राज नहीं करना चाहता । मैं उनका शिकार करूंगा, उनकी हत्या करूंगा, उन्हें सदर के लिये ज़मींदोज कर दूंगा ।
'मैं दुर्दान्त अहेरी, आखेटक, शिकारी, महाव्याध । मैं मार कर चैन लूंगा । हर शै को मार कर । अरे कहीं कोई है, जो मेरी आवाज़ सुनेगा ? मुझे तीरमें कमान दो, मुझे वह शार्ङ्गधर धनुष दो, जो कृष्ण वासुदेव की आयुधशाला जन्मा था । तीर-कमान, तीर-कमान, तीर-कमान
सम्राट् के अनुचर दूर से उनको इतना कातर, त्रस्त, विक्षिप्त देख कर पसीज गये । रो आये । वे अपने को रोक न सके । वे नत मस्तक श्रेणिक के सम्मुख आ
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खड़े हुए।
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