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'आज्ञा दें, प्रभु, आज्ञा !'
श्रेणिक पहले ज़रा खीजा, फिर उसे एक अजीब राहत अनुभव हई। उसकी प्रभुता को सहारा मिला। सैनिकों के सरदार ने सम्राट के चरणों में एक प्रकाण्ड धनुष और तीरों का तूणीर प्रस्तुत किया । · · · नहीं, ये मानुषिक धनुष-बाण वह न लेगा । आसमान से उतरना होगा उसके विश्वकोटि धनुष को, कालभेदी बाण को ।
और एक भंयकर गर्जना करके, सम्राट सामने के पर्वत पर चढ़ गया। एक शृंग पर खड़े हो कर उसने अपनी हुंकार से चम्पारण्य के राजेश्वर केसरी को ललकारा। उसकी दहाड़ों से खोहें और खन्दकें दहल उठीं। आदिम अन्धकारों के जन्तुलोक खलभला उठे ।
हठात् किसी अगम्य अँधेरी माँद के मुहाने को चीरता, एक महाव्याघ्र प्रलयंकर गर्जना करता सामने की खन्दक़ में कूद पड़ा । और वहीं से सम्राट को ललकारने लगा। एक विचित्र खनी मृत्यु-गन्ध से राजा मोहित और मत्त हो उठा। उसे अपने पौरुष की सार्थकता अनुभव हुई। हड़कम्पी गर्जना करते सिंह की विकराल डाढ़ों ने श्रेणिक को बेतहाशा खींचा। और छलांग भर कर वह उसकी डाढ़ों पर ही जैसे कूद पड़ा।
· · लेकिन यह क्या, कि सिंह ने भी उसे दगा दे दिया। वहाँ खंखार जबड़ा नहीं था। व्याघ्रराज की समर्पित पीठ थी, जिसके लोमों में राजा के पैर धंसक रहे थे। श्रेणिक ने अपनी समस्त क्रूरता से उसे खून्दा और कुचल कर भूसात् कर देना चाहा। मगर वह जंगल का राजेश्वर उसकी हर खून्दन से अधिक-अधिक नम्य और नर्म हो कर, उसे अपने में धंसाये ले रहा था। राजा के क्रोध का पार न रहा। प्रकृति की यह अन्तिम क्रूरता और भीषणता भी उसे प्रतिरोध देने को तैयार नहीं ? यहाँ उससे कोई भी लड़ना नहीं चाहता? कोई · · कोई · कोई भी उसकी पकड़, उसके पंजे, उसकी हत्या को उत्तर नहीं देना चाहता? राजा व्याघ्र की पीठ से नीचे उतर आया। उसने एक लात मार कर सम्मोहित, मूछितप्राय सिंह को झंझोड़ा, जगाया। ___'अरे उठ ओ मरदूद, तू ने भी अपना स्वधर्म छोड़ दिया ? ओ जड़-जंगम के राजा, मैं तेरी दया और प्रीत पाने नहीं आया । तुझसे लड़ने आया हूँ । सावधान केहरी, तैयार हो जा, मैं तुझ से कुश्ती लडूंगा। मैं तेरी सर्वभक्षी अंतड़ियों को अपने पंजों से फाड़ कर, तेरे जंगल-राज्य को अनाथ कर दूंगा। आ· · · आ· · ·आ । ले मैं आया । ..'
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