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________________ ११३ बदलते ही दोपहरी बीत जाती है। विजेता को विश्राम कैसा ? अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों की चुनौती सामने मण्डलाती है । और वह पृथ्वीपति, पृथ्वी के गर्भ को रौंदता हुआ, अभेद्य जंगल को भेदने के लिये, उसमें धँस पड़ता है । 1 • और यह क्या, कि रात गहरी होते ही, किसी मैदानी चट्टान पर कोई तम्बू गड़ा दोख जाता है। उसके ऊपर टँगा है आकाश-दीप । भीतर आलोक है, उजली सुख- शैया है। कितनी तत्परता से यह जंगल उसकी रक्षा और सेवा कर रहा है! लेकिन उस सुख - शैया पर लेटते ही सम्राट आशंकित हो उठता है । यह सब मानुषिकः नहीं, दैविक है ! ज़रूर कोई षड़यंत्र उसे चारों और से घेरे हुए है । वर्ना वर्ना, इस मानुषहीन निर्जन में सभ्य जगत के ये सुख-साधन क्यों कर हो सकते हैं ? नहीं, यह मेरी विजय का प्रताप नहीं, यह एक विराट् कारागार है; जिसके चक्राकार परकोटों का अन्त नहीं । इस क़ैदखाने को भेदना होगा। लेकिन कैसे ? बाहर टकराने और तोड़ने को कोई दीवार तो हो ! सम्राट का गुप्त संरक्षक - सैन्य, जंगलों की ओट रह कर, हर समय उनका पीछा करता रहता है । वही अपने स्वामी के लिये ठीक समय पर भोजन-शय न तथा अन्य जीवन-साधन उपस्थित कर देता है । पर वे अनुचर देखते हैं, कि उनका सम्राट खा कर भी खाता नहीं, सो कर भी सोता नहीं। बैठ कर भी बैठता नहीं । अशान्त, परेशान, वह तीर खाये सिंह की तरह इन वीरानों में दौड़ा फिरता है । पर वे कर ही क्या सकते हैं। अपने कर्तव्य के आगे उनकी गति नहीं । यह राजेश्वर अपना ही सगा नहीं, तो दूसरे की क्या बिसात । सावन को महीना है | चाहे जब मन्द्र गर्जन के साथ बादल घिर आते हैं । और पहरों समरस भाव से झड़ियाँ बरसती रहती हैं। श्रेणिक उनमें भींजता चला जाता है, कि शायद उसके भीतर की रात-दिन धधकती भट्टी शान्त हो जाये । वह गल जाये, शीतल हो जाये । बह जाये । लेकिन नहीं, वैसा कुछ नहीं होता । वन के प्रगाढ़ पल्लव-परिच्छद में, जलधाराएँ मर्मराती रहती हैं । उनमें कैसी मोहक, मार्मिक, गोपन फुसफुसाहट है । राजा मोहाकुल हो उठता है । पल्लव-जालों की भीतरमा उसे खींचती है । मानो वहीं कहीं कोई मार्दवी शैया है । ओह, वह उसे मूर्च्छित कर देगी । नहीं, यह नहीं होगा । वह सृष्टि की अन्तिम कोम - लता से भी हार नहीं मानेगा । और रात में उद्दण्ड बरसाती हवाएँ चलती हैं । सारा वनस्पति-राज्य हहर उठता है । दारुण गर्जन के साथ कहीं बिजली टूटती है । विश्व-विजेता चक्रवर्ती दहल उठता है । वह किसी ऊष्म बाहुमूल की अतल मृदुता में छुप जाना चाहता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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